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[ प्रज्ञापनासूत्र ]
विवेचन - (१) कति - प्रकृतिद्वार - आठ कर्मप्रकृतियाँ और चौवीस दण्डकों में उनका सद्भावमूल कर्मप्रकृतियाँ आठ प्रसिद्ध हैं। नारक से लेकर वैमानिक तक समस्त संसारी जीवों के भी आठ ही कर्मप्रकृतियाँ
हुई हैं।
आठ कर्मप्रकृतियों का स्वरूप - ( १ ) ज्ञानावरणीय
जो कर्म आत्मा के ज्ञानगुण को आच्छादित करे । सामान्य- विशेषात्मक वस्तु विशेष अंश का ग्रहण करना ज्ञान है। उसे जो आवृत करे, वह ज्ञानावरणीय है । (२) दर्शनावरणीय पदार्थ के विशेषधर्म को ग्रहण न करके सामान्य धर्म को ग्रहण करना 'दर्शन' है। जो आत्मा के दर्शनगुण को आच्छादित करे, वह दर्शनावरणीय है । ( ३ ) वेदनीय जिस कर्म के कारण आत्मा सुख-दुःख का अनुभव करे। (४) मोहनीय • जो कर्म आत्मा को मूढ सत्-असत् के विवेक से शून्य बनाता । (५) आयुकर्म – जो कर्म जीव को किसी न किसी भव में स्थित रखता है। (६) नामकर्म जो कर्म जीव के गतिपरिणाम आदि उत्पन्न करता है । ( ७ ) गोत्रकर्म - जिस कर्म के कारण जीव उच्च अथवा नीच कहलाता है अथवा जिस कर्म के उदय से जीव प्रतिष्ठित कुल अथवा नीच अप्रतिष्ठित में जन्म लेता है। कुल (८) अन्तरायकर्म – जो कर्म जीव के और दानादि के बीच में व्यवधान अथवा विघ्न डालता है, अथवा जो कर्म दानादि करने के लिए उद्यत जीव के लिये विघ्न उपस्थित करता है ।' द्वितीय : कह बंधइ (किस प्रकार बंध करता है ) द्वार
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१६६७. कहण्णं भंते ! जीवे अट्ठ कम्मपगडीओ बंधइ ?
गोयमा ! णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दरिसणावरणिज्जं कम्मं णियच्छति, दरिसणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दंसणमोहणिज्जं कम्मं णियच्छति, दंसणमोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्तं णियच्छति, मिच्छत्तेणं उदिण्णेणं गोयमा ! एवं खलु जीवे अट्ठ कम्मपगडीओ बंधइ ।
[१६६७ प्र.] भगवन्! जीव आठ कर्मप्रकृतियों को किस प्रकार बांधता है ?
[ १६६७ उ.] गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से (जीव) दर्शनावरणीय कर्म को निश्चय ही प्राप्त करता है, दर्शनावरणीय कर्म के उदय से (जीव) दर्शनमोहनीय कर्म को प्राप्त करता है। दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से मिथ्यात्व को निश्चय ही प्राप्त करता है और हे गौतम! इस प्रकार मिथ्यात्व के उदय होने पर जीव निश्चय ही आठ कर्मप्रकृतियों को बांधता है ।
१६६८. कहण्णं भंते ! णेरइए अट्ठ कम्मपगडीओ बंधइ ?
गोयमा ! एवं चेव । एवं जाव वेमाणिए ।
[१६६८ प्र.] भगवन् ! नारक आठ कर्मप्रकृतियों को किस प्रकार बांधता है ?
[ १६६८ उ.] गौतम ! इसी प्रकार ( पूर्वोक्त कथनवत्) जानना चाहिए।
इसी प्रकार (असुरकुमार से लेकर) वैमानिकपर्यन्त ( समझना चाहिए।)
प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी टीका भाग ५, पृ. १६१