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[तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] १६६९. कहण्णं भंते ? जीवा अट्ट कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! एवं चेव एवं जाव वेमाणिया। [१६६९ प्र.] भगवन्! बहुत-से जीव आठ कर्मप्रकृतियाँ किस प्रकार बाँधते हैं ? [१६६९ उ.] गौतम ! पूर्ववत् जानना। इसी प्रकार बहुत-से वैमानिकों तक (समझना चाहिए ।)
विवेचन- समुच्चय जीव और चौबीस दण्डक में एकत्व-बहुत्व की विवक्षा से अष्टकर्मबन्ध के कारण- प्रस्तुत द्वितीय द्वार में जीव अष्टकर्मबन्ध किस प्रकार करता है ? इसका स्पष्टीकरण करते हुए बताया गया है कि ज्ञानावरण का उदय होने पर दर्शनावरणीय कर्म का आगमन होता है अर्थात् जीव दर्शनावरणीय कर्म को उदय से वेदता है। दर्शनावरणीय के उदय से दर्शनमोह का और दर्शनमोह के उदय से मिथ्यात्व का और मिथ्यात्व के उदीर्ण होने पर आठों कर्मों का आगमन होता है अर्थात् जीव मिथ्यात्व के उदय से आठ कर्मप्रकृतियों का बंध करता है। सभी जीवों में आठ कर्मों के बन्ध (या आगमन) या यही क्रम है। इन चारों सूत्रों का तात्पर्य यह है कि कर्म से कर्म आता-बंधता है।
स्पष्टीकरण-आचार्य मलयगिरि ने इस सूत्र में प्रयुक्त खलु' शब्द का प्रायः' अर्थ करके इस सूत्रचतुष्टय को 'प्रायिक' माना है। इसका आशय यह है कि कोई-कोई सम्यग्दृष्टि भी आठ कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है। केवल सूक्ष्म-सम्परायगुणस्थानवर्ती संयत आदि आठ कर्मों का बंध नहीं करते।
ज्ञातव्य-यहां ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के बन्ध के कारणों में केवल मिथ्यात्व को ही मूल कारण बताया है, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को नहीं, किन्तु पारम्परिक कारणों में अविरति, प्रमाद और कषाय का भी समावेश हो जाता है। क्योंकि जीव ज्ञानावरणादि कर्म बांधता है, उसके (सू. १६७० में) मुख्यतया दो कारण बताए गए हैं-राग और द्वेष । राग में माया और लोभ का तथा द्वेष में क्रोध और मान का समावेश हो जाता है। तृतीयद्वार : कति-स्थान-बन्धद्वार
१६७०. जीवे णं भंते ! णाणावरणिज्जं कम्मं कतिहिं ठाणेहिं बंधइ ?
गोयमा ! दोहिं ठाणेहिं । तं जहा-रागेण य दोसेण य। रागे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-माया य लोभे य। दोसे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा–कोहे य माणे य। इच्चेतेहिं चउहि ठाणेहिं वीरिओवग्गहिएहिं एवं खलु जीवे णाणावरणिनं कम्मं बंधइ ।
१. (क) पण्णवणासुत्तं भाग २ (२३वें पद का विचार), पृ. १३१ __(ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भाग ५, पृ. १६६ २. (क) प्रज्ञापना मलयगिरि वृत्ति, पत्र ४५४
(ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. ५, पृ. १६४ ३. (क) पण्णवणासुत्तं. (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. १, पृ. ३६२, सू. १६७०, पृ. ३६४ तथा पण्णवणासुत्तं भा. २ पृ. १३१
(ख) 'मिथ्यात्व-अविरति-प्रमाद-कषाय-योगा-बन्धहेतवः'। - तत्त्वार्थसूत्र (ग) रागो य दोसो विय कम्मबीयं।
- उत्तराध्यनसूत्र