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________________ [छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [२७१ ही यहाँ कहना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ 'जीव' के स्थान में 'नारक' शब्द का प्रयोग करना चाहिए। [२] एवं णिरवसेसं जाव वेमाणिए। [२१५४-२] समुच्चय जीव सम्बन्धी वक्तव्यता के समान ही वैमानिक पर्यन्त (चौवीस दण्डकों सम्बन्धी) समग्र वक्तव्यता कहनी चाहिए। २१५५. एवं कसायसमुग्घातो वि भाणियव्वो। [२१५५] इसी प्रकार (वेदनासमुद्घात के समान) कषायसमुद्घात का भी (समग्र) कथन करना चाहिए। विवेचन-वेदना एवं कषाय समुद्घात से सम्बन्धित क्षेत्र-काल-क्रियादि की प्ररूपणा-प्रस्तुत । प्रकरण में वेदनासमुद्घात से सम्बन्धित ६ बातों की चर्चा की गई है-(१) शरीर से बाहर निकाले जाने वाले पुद्गलों से कितना क्षेत्र परिपूर्ण और स्पृष्ट (व्याप्त) होता है ? (२) वह क्षेत्र कितने काल में आपूर्ण और स्पृष्ट होता है ? (३) उन पुद्गलों को कितने काल में जीव आत्मप्रदेशों से बाहर निकालता है ? (४) बाहर निकाले हुए वे पुद्गल उस क्षेत्र मे रहे हुए प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का अभिधातादि करते हैं, इससे वेदनासमुद्घातकर्ता जीव को कितनी क्रियाएं लगती हैं ? (५) वे जीव उस जीव के निमित्त से कितनी क्रिया वाले होते हैं ? तथा (६) वह जीव और वे जीव अन्य जीवो का परम्परा से घात करने से कितनी क्रिया वाले होते हैं। कठिन शब्दों का भावार्थ-णिच्छुभति-(शरीर से बाहर) निकलाता है। अफुण्णे-आपूर्ण परिपूर्ण हुआ। फुडे-स्पृष्ट हुआ। विक्खंभ बाहल्लेणं-विस्तार और स्थूलता (मोटाई) की अपेक्षा से। अभिहणंति अभिहनन करते हैं-सामने से आते हुए का घात करते हैं, चोट पहुंचाते हैं। वत्तेति-आवर्त-पतित करते हैं-चक्कर खिलाते हैं। संघटेंति-परस्पर मर्दन कर देते हैं। परिया-ति-परितप्त करते है। किलावेंति-थका देते हैं, या मूछित कर देते है। उद्दवेंति-भयभीत कर देते या निष्प्राण कर देते हैं।' छह प्रश्नों का समाधान-(१) वेदनासमुद्घात से समवहत हुआ जीव जिन वेदनायोग्य पुद्गलों को अपने शरीर से बाहर निकालता है, वे पुद्गल विस्तार और स्थूलता की अपेक्षा शरीरप्रमाण होते हैं, वे नियम से छहों दिशाओं को व्याप्त करते हैं । अर्थात्-शरीर का जितना विस्तार और जितनी मोटाई होती है, उतना ही क्षेत्र उन पुद्गलों से परिपूण और स्पृष्ट होता है। (२) अपने शरीर प्रमाणमात्र विस्तार और मोटाई वाला क्षेत्र सतत एक समय, दो समय अथवा तीन समय की विग्रहगति से, जितना क्षेत्र व्याप्त किया जाता है उतनी दूर तक वेदना-उत्पादक पुद्गलों से आपूर्ण और स्पृष्ट होता है। आशय यह है कि अधिक से अधिक तीन समय के विग्रह द्वारा जितना क्षेत्र व्याप्त किया जाता है, उतना क्षेत्र आत्मप्रदेशों से बाहर निकले हुए वेदना उत्पन्न करने योग्य पुद्गलों द्वारा परिपूर्ण होता है। इतने ही काल में पूर्वोक्त क्षेत्र आपूर्ण और स्पष्ट होता है। (३) जीव उन वेदनाजनक पुद्गलों को जघन्य अन्तर्मुहूर्त ओर उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त से कुछ अधिक काल में बाहर निकालता है। अभिप्राय यह है कि जैसे तीव्रतर दाहज्वर से पीडित व्यक्ति सूक्ष्म पुद्गलों को शरीर से बाहर निकालता है, उसी प्रकार वेदनासमुद्घात-समवहत जीव भी जघन्य और उत्कृष्ट रूप से अन्तर्मुहूर्त काल में वेदना से पीडित होकर वेदना उत्पन्न करने योग्य शरीरवर्ती पुद्गलों को आत्मप्रदेशों से बाहर निकालता है। (४) बाहर निकाले हुए वे पुद्गल प्राण अर्थात्-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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