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[सत्ताईसवाँ कर्मवेदकवेदपद] (४) वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र, इन कर्मो का वेदन करता हुआ जीव बन्ध-वेदकवत् आठ, सात या चार कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है।
(५) मोहनीयकर्म का वेदन करता हुआ समुच्चय जीव व नैरयिक से वैमानिक तक के जीव एकत्व या बहुत्व की अपेक्षा से नियमतः आठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं।'
॥ प्रज्ञापना भगवती का सत्ताईसवाँ कर्मवेदवेदकमपद सम्पूर्ण ॥
१. (क) पण्णवणासुत्तं (मूल पाठ-टिपपण) भा. १, पृ. ३९१
(ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ५२३ से ५२७ तक (ग) प्रज्ञापना मलय वृत्ति, पद २७, अभिधान राजेन्द्र कोष भा. ३, पृ. २९४-२९५