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[ छत्तीसवाँ समुद्घातपद ]
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गोयमा ! केवलिस्स चत्तारि कम्मंसा अक्खीणा अवेदिया अणिज्जिण्णा भवंति । तं जहा - वेयणिजे १ आउए २ णामे ३ गोए ४ । सव्वबहुप्पएसे से वेदणिज्जे कम्मे भवति, सव्वत्थोवे से आउए कम्मे भवति ।, विसमं सम करेति बंधणेहिं ठितीहि य । विसमसमीकरणयाए बंधणेहिं ठितीहि य ॥ २२८ ॥
एवं खलु केवली समोहण्णति, एवं खलु समुग्धायं गच्छति ।
[२१७०-१ प्र.] भगवन् ! किस प्रयोजन से केवली समुद्घात करते हैं ?
[२१७०-१ उ.] गौतम! केवली के चार कर्मांश क्षीण नहीं हुए है, वेदन नही किये (भोगे नहीं गए) है, निर्जरा को प्राप्त नहीं हुए हैं, ( चार कर्म ) इस प्रकार हैं (१) वेदनीय, (२) आयु, (३) नाम और (४) गोत्र । उनका वेदनीयकर्म सबसे अधिक प्रदेशों वाला होता है। उनका सबसे कम (प्रदेशों वाला) आयुकर्म होता है ।
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[गाथार्थ - ] वे बन्धनों और स्थितियों से विषम (कर्म) को सम करते हैं। ( वस्तुतः ) बन्धनों और स्थितियों के विषम कर्मों का समीकरण करने के लिए केवली केवलिसमुद्घात करते हैं तथा इसी प्रकार केवलिसमुद्घात को प्राप्त होते हैं ।
२] सव्वे विणं भंते! केवली समोहण्णंति ? सव्वे वि णं भंते! केवली समुग्धायं गच्छंति ? गोयमा! णो इणट्ठे समट्ठे,
जस्साऽऽउएणतुल्लाइं बंधणेहिं ठितीहि य ।
भवोवग्गहकम्माई समुग्धायं से ण गच्छति ॥ २२९ ॥
अगंतूणं समुग्धायं अनंता केवली जिण ।
जर - मरणविप्यमुक्का सिद्धिं वरगतिं गता ॥ २३० ॥
[२१७०-२ प्र.] भगवन् ! क्या सभी केवली भगवान् समुद्घात करते हैं ? तथा क्या सब केवली समुद्घात को प्राप्त होते हैं ?
[२१७०-२ उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है ।
[गाथार्थ - ] जिसके भवोपग्राही कर्म बन्धन एवं स्थिति से आयुष्यकर्म के तुल्य होते हैं, वह केवली समुद्घात नहीं करता।
समुद्घात किये बिना ही अनन्त केवलज्ञानी जिनेन्द्र जरा और मरण से सर्वथा रहित हुए हैं तथा श्रेष्ठ सिद्धिगति प्राप्त हुए हैं।
विवेचन - केवली द्वारा केवलिसमुद्घात क्यों और क्यों नहीं ? - प्रश्न का आशय यह है कि केवली तो कृतकृत्य तथा अनन्तज्ञानादि से परिपूर्ण होते हैं, उनका प्रयोजन शेष नहीं रहता, फिर उन्हें केवलिसमुद्घात की क्या आवश्यकता ?