________________
७०]
[तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद]
१७२४. सेसं जहा बेइंदियाणं जाव अंतराइयस्स। [१७२४] शेष यावत् अन्तराय तक का बन्धकाल द्वीन्द्रिय जीवों के बन्धकाल के समान जानना चाहिए ।
विवेचन - त्रीन्द्रिय जीवों के बन्धकाल की विशेषता – त्रीन्द्रिय जीवों के बन्धकाल की प्ररूपणा भी इसी प्रकार की है, किन्तु उनका बन्धस्थितिकाल एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा ५० गुणा अधिक होता है। चतुरिन्द्रिय जीवों की कर्मप्रकृतियों की स्थितिबन्ध-प्ररूपणा
१७२५. चउरिदिया णं भंते! जीवा णाणावरणिजस्स किं बंधति ?
गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमसयस्स तिण्णि सत्तभागे पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति। एवं जस्स जइ भागा ते तस्स सागरोवमसतेण सह भाणियव्वा।
[१७२४ प्र.] भगवन्! चतुरिन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म का कितने काल का बंध करते हैं ?
[१७२४ उ.] गौतम! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सौ सागरोपम के ३/७ भाग का और उत्कृष्ट पूरे सौ सागरोपम के ३०७ भाग का बन्ध करते है।
१७२६. तिरिक्खजोणियाउअस्स कम्मस्स जहण्णेणं अंतोमुहुर्त, उक्कोसेणं पुव्वकोडिं दोहिं मासेहिं अहियं। एवं मणुस्साउअस्स वि।
[१७२६] तिर्यञ्चायुकर्म का (बन्धकाल) जघन्य अन्तमुहुर्त का है और उत्कृष्ट दो मास अधिक करोड़ पूर्वे का है। इसी प्रकार मनुष्यायु का बन्धकाल भी जानना चाहिए।
१७२७. सेसं जहा बेइंदियाणं। णवरं मिच्छत्तवेयणिजस्स जहण्णेणं सागरोवमसतं पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधति। सेसं जहा बेइंदियाणं जाव अंतराइयस्स। ___[१७२७] शेष यावत् अन्तराय द्वीन्द्रियजीवों के बन्धकाल के समान जानना चाहिए। विशेषता यह है कि मिथ्यात्ववेदनीय (मोहनीय) का जघन्य पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम सौ सागरोपम और उत्कृष्ट परिपूर्ण सौ सागरोपम का बन्ध करते हैं। शेष कथन अन्तराय कर्म तक द्वीन्द्रियों के समान है।
विवेचन - चतुरिन्द्रिय जीवों के बन्धकाल की विशेषता – उनका बन्धकाल एकेन्द्रियों की अपेक्षा सौ गुणा अधिक होता है। १. (क) पण्णवणासुत्तं भाग. १. पृ. ३८०
(ख) प्रज्ञापनासूत्र भा. ५ (प्रमेयबोधिनी टीका) पृ. ४२० १. (क) पण्णवणासुत्तं, भाग १, पृ. ६८०
(ख) प्रज्ञापनासूत्र (प्रमेयबोधिनी टीका), भाग ५, पृ. ४२१