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[प्रज्ञापनासूत्र] असंज्ञी-पंचेन्द्रिय जीवों की कर्मप्रकृतियों की स्थितिबन्ध-प्ररूपणा
१७२८. असण्णी णं भंते! जीवा पंचेंद्रिया णाणावरणिजस्स कम्मस्स कि बंधंति ?
गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमसहस्सस्स तिणि सत्तभागे पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति। एवं सो चेव गमो जहा बेइंदियाणं। णवरं सागरोवमसहस्सेण समं भाणियव्वा जस्स जति भाग त्ति।
[१७२८ प्र.] भगवन् ! असंज्ञी-पंचेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीय कर्म कितने काल का बांधते हैं ?
[१७२८ उ.] गौतम! वे पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्रसागरोपम के ३/७ भाग काल का और उत्कृष्ट परिपूर्ण सहस्र सागरोपम के ३/७ भाग (काल) का बन्ध करते हैं। इस प्रकार द्वीन्द्रियों के (बन्धकाल के) विषय में जो गम (आलापक) कहा है, वही यहाँ जानना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के प्रकरण में जिस कर्म का जितना भाग हो, उसका उतना ही भाग सहस्रसागरोपम से गुणित.कहना चाहिए। ।
१७२९. मिच्छत्तवेदणिजस्स जहण्णेणं सागरेवमसहस्सं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं।
[१७२९] वे मिथ्यात्ववेदनीयकर्म का जघन्य बन्ध पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम का और उत्कृष्ट बंध परिपूर्ण सहस्र सागरोपम का (करते हैं)। ___१७३०[१]णेरइयाउअस्स जहण्णेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तब्भइयाई, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागं पुव्वकोडितिभागब्भइयं बंधति।
[१७३०-१] वे नरकायुष्यकर्म का (बन्ध) जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष का और उत्कृष्ट पूर्वकोटि के त्रिभाग अधिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग का बन्ध करते हैं।
[२] एवं तिरिक्खजोणियाउअस्स वि। णवरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं।
[१७३०-२] इसी प्रकार तिर्यञ्चायु का भी उत्कृष्ट बन्ध पूर्वकोटि का त्रिभाग अधिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग का, किन्तु जघन्य अन्तर्मुहूर्त का करते हैं।
[३] एवं मणुस्साउअस्स वि। [१७३०-३] इसी प्रकार मनुष्यायु के (बन्ध के) विषय में समझना चाहिए। [४] देवाउअस्स जहा णेरइयाउअस्स। [१७३०-४] देवायू का बन्ध नरकायु के समान जानना चाहिए। १७३१. [१] असण्णी णं भंते! जीवा पंचेंदिया णिरयगतिणामए कम्मस्स कि बंधति ?