SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [६९ [प्रज्ञापनासूत्र] करके पूर्ववत् समझ लेना चहिए। जिन कर्मप्रकृतियों का बन्ध एकेन्द्रिय जीव नहीं करते, द्वीन्द्रिय जीव भी उनका बन्ध नहीं करते। इस प्रकार जिस कर्म की जो-जो उत्कृष्ट स्थिति पहले कही गई है, उस स्थिति का मोहनीयकर्म की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोडाकोडी के साथ भाग करने पर जो संख्या लब्ध होती है,उसे पच्चीस से गुणा करने पर जो राशि आए उसमें से पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम करने पर द्वीन्द्रिय जीवों की जघन्य स्थिति का परिमाण आ जाता है। उदाहरणार्थ - ज्ञानावरणीय पंचक आदि के सागरोपम के ३/७ भाग का पच्चीस से गुणा किया जाय तो पच्चीस सागरोपम के ३/७ भाग हुए। अर्थात् – उनका उत्कृष्ट बन्धकाल पूरे पच्चीस सागरोपम के ३/७ भाग हुए। यदि पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम कर दिया जाए तो उनका जघन्य स्थिति बन्धकाल हुआ। त्रीन्द्रियजीवों में कर्म प्रकृतियों की स्थिति-बन्धप्ररूपणा १७२१. तेइंदिया णं भंते!जीवा णाणावरणिजस्स कि बंधंति ? गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमपण्णासाए तिण्णि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति। एवं जस्स जइ भागा ते तस्स सागरोवमपण्णासाए सह भाणियव्वा। [१७२१ प्र.] भगवन् ! त्रीन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीय कर्म का कितने काल का बंध करते हैं ? [१७२१ उ.] गौतम! वे जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पचास सागरोपम के ३/७ भाग का बंध करते हैं और उत्कृष्ट वही परिपूर्ण बांधते हैं । इस प्रकार जिसके जितने भाग हैं, वे उनके पचास सागरोपम के साथ कहने चाहिए। १७२२. तेइंदिया णं मिच्छत्तवेयणिजस्स कम्मस्स किं बंधंति ? गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमपण्णासं पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंतिः _ [१७२२ प्र.] भगवन्! त्रीन्द्रिय जीव मिथ्यात्व-वेदनीय कर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? [१७२२ उ.] गौतम! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पचास सागरोपम का और उत्कृष्ट पूरे पचास सागरोपम का बन्ध करते हैं। १७२३. तिरिक्खजोणियाउअस्स जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडि सोलसहिं राइदिएहिं राइंदियतिभागेण य अहियं बंधंति । एवं मणुस्साउयस्स वि। - [१७२३] तिर्यञ्चायु का जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट सोलह रात्रि-दिवस तथा रात्रि दिवस के तीसरे भाग अधिक करोड़ पूर्व का बन्धकाल है। इसी प्रकार मनुष्यायु का भी बन्धकाल है। १. प्रज्ञापनासूत्र भा. ५ (प्रमेयबोधिनी टीका) पृ. ४११-४२०
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy