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[तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] पडिपुण्णं बंधति ।
[१७१८ प्र.] भगवन्! द्वीन्द्रिय जीव मिथ्यात्ववेदनीयकर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? _ [१७१८ उ.] गौतम! वे जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पच्चीस सागरोपम की और उत्कृष्टतः वही परिपूर्ण बांधते हैं।
१७१९. तिरिक्खजोणियाउअस्स जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडि चउहि वासेहि अहियं बंधति । एवं मणुयाउअस्स वि।
६१७१९] द्वीन्द्रिय जीव तिर्यञ्चायु को जघन्यत: अन्तर्मुहुर्त की और उत्कृष्टतः चार वर्ष अधिक पूर्वकोटिवर्ष की बांधते हैं । इसी प्रकार मनुष्यायु का कथन भी कर देना चाहिए।
१७२०. सेसं जहा एगिदियाणं जाव अंतराइयस्स। [१७२०] शेष यावत् अन्तरायकर्म तक एकेन्द्रियों के कथन के समान जानना चाहिए।
विवेचन - द्वीन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों का बन्ध कितने काल का करते हैं ? इस प्रश्न का समाधान यहाँ किया गया है। नीचे लिखे रेखाचित्र से आसनी से समझ में आ जाएगाकर्म प्रकृति का नाम जघन्य बन्धस्थिति
उत्कृष्ट बन्धस्थिति ज्ञानावरणीय, निद्रापंचक पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम २५ सागरोपम के ३/७ भाग की
२५ सागरोपम के ३/७ भाग की शेषकर्म
एकेन्द्रिय के समान बन्ध-अबन्ध
जानना मिथ्यात्वमोहनीय
पल्योपम के असंख्यातवें भाग पूर्ण पच्चीस सागरोपम की
कम २५ सागरोपम की तिर्यञ्चायु मनुष्यायुः अन्तर्मुहूर्त
४ वर्ष अधिक पूर्वकोटी की नाम गोत्र अन्तरायादि एकेन्द्रिय के समान
एकेन्द्रियवत्' एकेन्द्रियों की अपेक्षा द्वीन्द्रिय जीवों के बंधकाल की विशेषता - एक विशेषता यह है कि द्वीन्द्रिय जीवों का बन्धकाल एकेद्रिय जीवों से पच्चीस गुणा अधिक होता है। जैसे - एकेन्द्रिय के ज्ञानावरणीयकर्म का जघन्य बन्धकाल पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम एक सागरोपम के ३/७ माग का है, जबकि द्वीन्द्रिय का जघन्य बन्धकाल पल्योपम के असंखयातवें भाग कम २५ सागरोपम के ३/७ भाग का है। इस प्रकार पच्चीस गुणा अधिक १. पण्णवणासुत्तं भाग १ (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. ३७९