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________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [६७ पूरे सागरोपम के २७ भाग की पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के २७ भाग की १५ नपुंसकवेद, भय, शोक, जुगुप्सा, अरति, तिर्यञ्चद्विक, औदारिकद्विक अन्तिम संहनन, कृष्णवर्ण, तिक्तरस, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिरादिषट्क, स्थावर, आतप, उधोत, अप्रशस्त विहायोगति, निर्माण, एकेन्द्रिय पंचेन्द्रिय जाति तैजस, कार्मण शरीरनाम' द्वीन्द्रियजीवों में कर्मप्रकृतियों की स्थितिबन्ध-प्ररूपणा १७१५. बेइंदिया णं भंते! जीवा णाणावरणिजस्स कम्मस्स किं बंधति ? गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमपणुवीसाए तिण्णि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति । [१७१५ प्र.] भगवन्! द्वीन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? [१७१५ उ.] गौतम! वे जधन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पच्चीस सागरोपम के ३/७ भाग (काल) का बन्ध करते हैं और उत्कृष्ट वही परिपूर्ण बांधते हैं। १७१६. एवं णिद्दापंचगस्स वि। [१७१६] इसी प्रकार निद्रापंचक (निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला और स्त्यानगृद्धि) की स्थिति के विषय में जानना चाहिए। १७१७. एवं जहा एगिदियाणं भणियं तहा बेइंदियाण वि भाणियव्वं । णवरं सागरोवमपणुवीसाए सह भाणियव्वा पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया, सेसं तं चेव, जत्थ एगिंदिया ण बंधंति तत्थ एते विण बंधंति। [१७१७] इसी प्रकार जैसे एकेन्द्रिय जीवों की बन्धस्थिति का कथन किया है, वैसे ही द्वीन्द्रिय जीवों की बंधस्थिति का कथन करना चाहिए। जहाँ (जिन प्रकृतियों को) एकेन्द्रिय नहीं बांधते, वहाँ (उन प्रकृतियों को) ये भी नहीं बांधते हैं। १७१८. बेइंदिया णं भंते! जीवा मिच्छत्तवेयणिजस्स किं बंधंति ! गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमपणुवीसं पलिओवमस्स असंखिजइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव १. (क) पण्णवणासुत्तं भा. १ २. (ख) प्रज्ञापनासूत्र भा. ५ (प्रमेयबोधिनी टीका सहित)
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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