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[ तीसवाँ पश्यत्तापद ]
[१९६३ उ. ] गौतम ! यह अर्थ ( बात) समर्थ (शक्य) नहीं है।
[प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता कि केवली इस रत्नप्रभापृथ्वी को आकारों से यावत् प्रत्यवतारों से जिस समय जानते हैं, उस समय नहीं देखते और जिस समय देखते हैं, उस समय नहीं जानते हैं ?
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[उ.] गौतम ! जो साकार होता है, वह ज्ञान होता है और जो अनाकार होता है, वह दर्शन होता है, [ इसलिए जिस समय साकारज्ञान होगा, उस समय अनाकारज्ञान (दर्शन) नहीं रहेगा, इसी प्रकार जिस समय अनाकारज्ञान (दर्शन) होगा, उस समय साकारज्ञान नहीं होगा। ] इस कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि केवलज्ञानी जिस समय जानता है, उस समय देखता नहीं यावत् जानता नहीं। इसी प्रकार शर्कराप्रभापृथ्वी से यावत् अधः सप्तमनरकपृथ्वी तक के विषय में जानना चाहिए और इसी प्रकार ( का कथन ) सौधर्मकल्प से लेकर अच्युतकल्प, ग्रैवेयकविमान, अनुत्तरविमान, ईषत्प्राग्भारापृथ्वी, परमाणुपुद्गल, द्विप्रदेशिक स्कन्ध यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक के जानने और देखने के विषय में समझना चाहिए। (अर्थात् इन्हें जिस समय केवली जानते हैं, उस समय देखते नहीं और जिस समय देखते हैं, उस समय जानते नहीं)
१९६४. केवली णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढविं अणागारेहिं अहेतूहिं अणुवमाहिं अदिट्ठतेहिं अवण्णेहिं असंठाणेहिं अपमाणेहिं अपडोयारेहिं पासइ, ण जाणइ ?
हंता गोयमा ! केवली णं इमं रयणप्पभं पुढविं अणागारेहिं अहेतूहिं जाव पासइ, ण जाणइ । सेकेणट्ठे भंते! एवं वुच्चति केवली णं इमं रयणप्पभं पुढविं अणागारेहिं जाव पासइ, ण जाणइ ?
गोयमा ! अणागारे से दंसणे भवति सागारे से णाणे भवति, से तेणट्ठेणं गोयमा एवं वुच्चति केवली णं इमं रयणप्पभं पुढविं अणागारेहिं जाव पासइ, ण जाणइ । एवं जाव ईसीपब्भारं पुढविं परमाणुपोग्गलं अणतपदेसियं पासइ, ण जाणइ ।
[१९६४ प्र.] भगवान ! क्या केवलज्ञानी इस रत्नप्रभापृथ्वी को अनाकारों से, अहेतुओं से, अनुपमाओं से, अदृष्टान्तों से, अवर्णों से, असंस्थानों से, अप्रमाणों से और अप्रत्यवतारों से देखते हैं, जानते नहीं हैं ?
[१९६४ उ. ] हाँ, गौतम ! केवली इस रत्नप्रभापृथ्वी को अनाकारों से यावत् देखते हैं, जानते नहीं हैं। [प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि केवली इस रत्नप्रभापृथ्वी को अनाकारों से यावत् देखते हैं, जानते नहीं ?
[उ.] गौतम ! जो अनाकार होता, वह दर्शन (देखना) होता है और साकार होता है, वह ज्ञान (जानना) होता है। इस अभिप्राय से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि केवली इस रत्नप्रभापृथ्वी को अनाकारों से "यावत् देखते हैं, जानते नहीं हैं।
इसी प्रकार (अनाकारों से यावत् अप्रत्यवतारों से शेष छहों नरकपृथ्वियों, वैमानिक देवों के विमानों) यावत् ईषत्प्राग्भारापृथ्वी, परमाणुपुद्गल तथा अनन्त प्रदेशी स्कन्ध को केवली देखते हैं, किन्तु जानते नहीं, (यह कहना चाहिए ) ॥ पण्णवणाए भगवतीए तीसइमं पासणयापयं समत्तं ॥