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________________ ३२] [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] [१६९५-२ प्र.] भगवन् ! उच्चगोत्रकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? __ [१६९५-२ उ.] गौतम! वह आठ प्रकार का कहा गया है, यथा - जातिविशिष्टता यावत् ऐश्वर्यविशिष्टता। [३] एवं णीयागोए वि। णवरं जातिविहीणया जाव इस्सरियविहीणया। ...[१६९५-३] इसी प्रकार नीचेगात्र भी आठ प्रकार का है। किन्तु यह उच्चगोत्र से विपरीत है, यथा - जातिविहीनता यावत् ऐश्वर्यविहीनता। १६९६. अंतराइए णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते। जहा - दाणंतराइए जाव वीरियंतराइए। [१६९६ प्र.] भगवन् ! अन्तरायकर्म कितने प्रकार का कहा गया है? [१६९६ उ.] गौतम! वह पांच प्रकार का कहा गया है, यथा - दानान्तराय यावत् वीर्यान्तरायकर्म। . विवेचन - उत्तरकर्मप्रकृतियां - प्रथम उद्देशक में ज्ञानावरणीय आदि ८ मूल कर्मप्रकृतियों के अनुभाव का वर्णन करने के पश्चात् द्वितीय उद्देशक में सर्वप्रथम (सू. १६७३ से १६९६ तक में) मूल कर्मप्रकृतियों के अनुसार उत्तरकर्मप्रकृतियों के भेदों का निरूपण किया गया है। उत्तरकर्मप्रकृतियों का स्वरूप - (१) ज्ञानावरणीयकर्म के पांच उत्तरभेद हैं । आभिनिबोधिक (मति) ज्ञानावरण - जो कर्म आभिनिबोधिक ज्ञान अर्थात् मतिज्ञान को आवृत करता है, उसे आभिनिबोधिकज्ञानावरण कहते है। इसी प्रकार श्रुतज्ञानावरण आदि के विषय में समझ लेना चाहि। ___दर्शनावरणीयकर्म – पदार्थ के सामान्य धर्म की सत्ता के प्रतिभास को दर्शन कहते हैं । दर्शन को आवरणे करने वाले कर्म को दर्शनावरण कहते हैं । दर्शनावरण के दो भेद - निद्रापंचक दर्शनचतुष्क है। निद्रापंचक के पांच भेदों का स्वरूप प्रथम उद्देशक में कहा जा चुका है। दर्शनचतुष्क चार प्रकार का है- चक्षुदर्शनावरण - चक्षु के द्वारा वस्तु के सामान्यधर्म के ग्रहण को रोकने वाला कर्म चक्षुदर्शनावरण हे। अचक्षुदर्शनावरण - चक्षुरिन्द्रिय के सिवाय शेष स्पर्शन आदि इन्द्रियों और मन से होने वाले सामान्यधर्म के प्रतिभास को रोकने वाले कर्म को अचक्षुदर्शनावरण कहते हैं। अवधिदर्शनावरण - इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना ही द्रव्य के सामान्यधर्म के होने वाले बोध को रोकने वाले कर्म को अवधिदर्शनावरण कहते है। केवलदर्शनावरण - सम्पूर्ण द्रव्यों के होने वाले सामान्यधर्म के अवबोध को आवृत करने वाले को केवलदर्शनावरण कहते हैं । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि निद्रापंचक प्राप्त दर्शनशक्ति का उपघातक है, जबकि दर्शनचतुष्क मूल से ही दर्शनलब्धि का घातक होता है।' (३) वेदनीयकर्म- जो कर्म इन्द्रियों के विषयों का अनुभवन-वेदन कराए, उसे वेदनीयकर्म कहते हैं। वेदनीयकर्म से आत्मा को जो सुख-दुःख का वेदन होता है, वह इन्द्रियजन्य सुख-दुःख अनुभव है। आत्मा को जो १. पण्णवणासुत्तं भा. १(मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ.३६७ से ३७९ तक २. (क) पण्णवणासुत्तं भा. १(मू.पा.टि.), पृ. ३६८ (ख) प्रज्ञापना, (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग ५, पृ. २४१ - २४२ (ग) कर्मग्रन्थ भा. १ (मरुधरकेसरी व्याख्या) पृ. ५१ से ६१ तक
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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