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[ प्रज्ञापनासूत्र ]
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१८५६. बेइंदिया पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च एवं चेव, पडुप्पण्णभावपण्णवणं पडुच्च णियमा बेइंदियसरीराइं आहारेंति ।
[१८५६] द्वीन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में पूर्वभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से इसी प्रकार (पूर्ववत् कहना चाहिए।) वर्तमानभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से वे नियम से द्वीन्द्रियशरीरों का आहार करते हैं ।
१८५७. एवं जाव चउरिंदिया ताव पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च एवं, पडुप्पण्णभावपण्णवणं पडुच्च णियमा जस्स जति इंदियाई तइंदियसरीराई ते आहारेंति ।
[१८५७] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियपर्यन्त पूर्वभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से पूर्ववत् (कथन जानना चाहिए।) वर्तमानभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से जिसके जितनी इन्द्रियां हैं, उतनी ही इन्द्रियों वाले शरीर का आहार करते हैं। १८५८. सेसा जहा णेरड्या जाव वेमाणिया ।
[१८५८] वैमानिकों तक शेष जीवों का कथन नैरयिकों के समान जानना चाहिए।
विवेचन कौन-सा जीव किनके शरीरों का आहार करता है ? प्रस्तुत प्रकरण में नैरयिक आदि चौवीस दण्डकवर्ती जीव जिन-जिन जीवों के शरीर का आहार करते हैं, उसकी प्ररूपणा की गई है, दो अपेक्षाओं से - पूर्वभावप्रज्ञापना (अर्थात् अतीतकालीन पर्यायों की प्ररूपणा) की अपेक्षा से और प्रत्युत्पन्न • वर्तमानकालिक भाव की प्ररूपणा की अपेक्षा से ।
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प्रश्न के समाधान का आशय प्रश्न तो मूल पाठ से स्पष्ट है, किन्तु उसके समाधान में जो कहा गया कि नारकादि जीव पूर्वभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के शरीरों का आहार करते हैं और वर्तमानभावप्रज्ञापना की अपेक्षा नैरयिकादि पंचेन्द्रिय नियम से पंचेन्द्रियशरीरों का, चतुरिन्द्रिय चतुरिन्द्रियशरीरों का, त्रीन्द्रिय त्रीन्द्रियशरीरों का, द्वीन्द्रिय द्वीन्द्रियशरीरों का और पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय एकेन्द्रियशरीरों का ही आहार करते हैं । अर्थात् - जो प्राणी जितनी इन्द्रियों वाला है, वह उतनी ही इन्द्रियों वाले शरीरों का आहार करते हैं। इस समाधान का आशय वृत्तिकार लिखते हैं कि आहार्यमाण पुद्गलों के अतीतभाव (पर्याय) की दृष्टि से विचार किया जाए तो निष्कर्ष यह निकलता है कि उनमे से कभी कोई एकेन्द्रियशरीर के रूप में परिणत थे, कोई द्वीन्द्रियशरीर के रूप में परिणत थे, कोई त्रीन्द्रियशरीर या चतुरिन्द्रियशरीर के रूप में और कोई पंचेन्द्रियशरीर के रूप में परिणत थे। उस पूर्वभाव का यदि वर्तमान में आरोप करके विवक्षा की जाए तो नारकजीव एकेन्द्रियशरीरों का तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय शरीरों का भी आहार करते हैं । किन्तु जब ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से वर्तमान-भव की विवक्षा की जाती है, तब ऋजुसूत्रनय क्रियमाण को कृत, आहार्यमाण को आहत और परिणम्यमान पुद्गलों को परिणत स्वीकार करता है, जो स्वशरीर के रूप में परिणत हो रहे हैं। इस प्रकार ऋजुसूत्रनय के मत से स्वशरीर का ही आहार किया जाता है। नारकों, देवों, मनुष्यों और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों का स्वशरीर पंचेन्द्रिय है। शेष जीवों (एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय) के विषय में भी इसी प्रकार स्थिति के अनुसार कहना चाहिए।
१. (क) पण्णवणासुत्त भा. १ (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. ३९९
(ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. ५, पृ. ६०५-६०६
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