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[छत्तीसवाँ समुद्घातपद]
[२६९ कषायसमुद्घात, (३) मारणान्तिकसमुद्घात, (४) वैक्रियसमुद्घात और (५) तैजसमुद्घात (६) आहारकसमुद्घात ।
विवेचन-चौवीस दण्डकों में छाद्यस्थिकसमुद्घात-छद्मस्थ को होने वाले या छद्मस्थ (जिसे केवलज्ञान न हुआ हो) से सम्बन्धित समुद्घात छाद्मस्थिकसमुद्घात कहलाते हैं। केवलीसमुद्घात को छोड़कर शेष छहों छाद्मस्थिकसमुद्घात हैं। नारकों में तेजोलब्धि और अहारकलबिध न होने से तैजस और आहरकसमुद्घात के सिवाय शेष ४ छाद्यस्थिकसमुद्घात पाये जाते है। असुरकुमारादि भवनपतियों तथा शेष तीन प्रकार के देवों में पांचपांच छाद्मस्थिकसमुद्घात पाये जाते हैं, क्योंकि देव चौदह पूर्वो के ज्ञान तथा आहारकलब्धि से रहित होते हैं अतएव उनमें आहारकसमुद्घात नहीं पाया जाता। पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में भी ये ही पांच समुद्घात पाये जाते हैं। वायुकायिकों के सिवाय शेष ४ एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में वैक्रिय, तैजस और आहारक को छोड़कर शेष ३ समुद्घात पाये जाते हैं। वायुकायिकों में वैक्रियसमुद्घात अधिक होता है। मनुष्यों में ६ ही छाद्यस्थिकसमुद्घात पाए जाते हैं। वेदना एवं कषाय-समुद्घात से समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा
२१५३. [१] जीवे णं भंते! वेदणासमुग्घाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छुभति तेहिं णं भंते! पोग्गलेहिं केवतिए खेत्ते अफुण्णे? केवतिए खेत्ते फुडे ? • गोयमा! सरीरपमाणमेत्ते विक्खंभ-बाहल्लेणं णियमा छद्दिसिं एवइए खेत्ते अफुण्णे एवइए खेत्ते फुडे।
[२१५३-१ प्र.] भगवन् ! वेदनासमुद्घात से समवहत हुआ जीव समवहत होकर जिन पुद्गलों कों (अपने शरीर से बाहर) निकलता है, भंते ! उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र परिपूर्ण होता है तथा कितना क्षेत्र स्पृष्ट होता है ?
[२१५३-१ उ.] गौतम! विस्तार (विष्कम्भ) और स्थूलता (बाहल्य) की अपेक्षा शरीरप्रमाण क्षेत्र को नियम से छहों दिशाओं मे व्याप्त (परिपूर्ण) करता है। इतना क्षेत्र आपूर्ण (परिपूर्ण) और इतना ही क्षेत्र स्पृष्ट होता है।
[२] से णं भंते! खेत्ते केवइकालस्स अफुण्णे केवइकालस्स फुडे?
गोयमा! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा तिग्गहेण वा एबइकालस्स अफुण्णे एवइकालस्स फुडे।
[२१५३-२ प्र.] भगवन्! वह क्षेत्र कितने काल में आपूर्ण और कितने काल में स्पृष्ट हुआ ?
[२१५३-२ उ.] गौतम! एक समय, दो समय अथवा तीन समय के विग्रह में (जितना काल होता है) इतने काल में आपूर्ण हुआ और इतने ही काल में स्पृष्ट होता है।
[३] ते णं भंते! पोग्गला केवइकालस्स णिच्छुभति ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तस्स, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तस्स।
[२१५३-३ प्र.] भगवन् ! (जीव) उन पुद्गलों को कितने काल में (आत्मप्रदेशों से बाहर) निकालता है ? _[२१५३-३ उ.] गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त में (वह उन पुद्गलों को बाहर निकालता है।