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प्रथम द्वार में मूल-कर्म-प्रकृति की संख्या और चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में उनके सद्भाव की प्ररूपणा है। दूसरे द्वार में बताया गया है कि समुच्चय जीव तथा चौबीस दण्डकवर्ती जीव किस प्रकार आठ कर्मों को बाँधते हैं ? तीसरे द्वार में बताया गया है कि ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों को एक या अनेक समुच्चय जीव तथा चौबीस दण्डकवर्ती जीव, राग और द्वेष (जिनके अन्तर्गत क्रोधादि चार कषायों का समावेश हो जाता है), इन दो कारणों से बांधते हैं। चौथे द्वार में यह बताया गया है कि समुच्चय जीव या चौबीस दण्डकवर्ती जीव एकत्व एवं बहत्व की अपेक्षा से, ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों में किन-किन कर्मों का वेदन करता है ? इसके पश्चात् पंचम कतिविध-अनुभाव द्वार में विस्तृत रूप से बताया गया है कि जीव के द्वारा बद्ध, स्पृष्ट, बद्ध-स्पृष्ट, संचित, चित, उपचित, आपाक-प्राप्त, विपाक-प्राप्त, फलप्राप्त, उदय-प्राप्त, कृत निष्पादित, परिणामित, स्वत: या परतः उदीरित, उभयतः उदीरणा किये जाते हुए गति, स्थिति
और भव की अपेक्षा से ज्ञानावरणीयादि किस-किस कर्म के कितने-कितने विपाक या फल हैं ? तेईसवें पद के द्वितीय उद्देशक में सर्वप्रथम अष्ट कर्मों की मूल और उत्तर-प्रकृतियों के भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है। तदन्तर ज्ञानावरणीयादि आठों कर्मों की (भेद-प्रभेदसहित) स्थिति का निरूपण किया गया है। इसके पश्चात् यह निरूपण किया गया है कि एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी-असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव ज्ञानावरणीयादि आठ कमों में से किस कर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? तथा ज्ञानावरणीय आदि आठों कर्मों की जघन्य स्थिति और उत्कृष्ट स्थिति को बांधने वाले कौन-कौन जीव हैं? चौबीसवें 'कर्मबन्ध-पद' में बताया गया है कि चौबीस दण्डकवर्ती जीव ज्ञानावरणीय आदि किसी एक कर्म को बांधता हुआ, अन्य किन-किन कर्मों को बांधता है, अर्थात् कितने अन्य कर्मों को बांधता है ? पच्चीसवें कर्मबन्ध-वेदपद में बताया गया है कि जीव आठ कर्मों में से किसी एक कर्म को बांधता हुआ, अन्य किनकिन कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? छब्बीसवें कर्मवेद-बन्धपद में कहा गया है कि जीव आठ कर्मों में से किसी एक कर्म को वेदता हुआ, अन्य कितने कर्मों का बन्ध करता है? सत्ताईसवें कर्मवेद-वेदकपद' में कहा गया है कि जीव किसी एक कर्म के वेदन के साथ किन अन्य कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है? प्रस्तुत पांचों पदों के निरूपण द्वारा शास्त्रकार ने स्पष्ट ध्वनित कर दिया है कि जीव कर्म करने और फल भोगने में, नये कर्म बांधने तथा समभावपूर्वक कर्मफल भोगने में स्वतंत्र है तथा कर्म-सिद्धान्त के प्रतिपादन का उद्देश्य देवगति या अमुक प्रकार के शरीरादि की उपलब्धि करना नहीं है । अपितु कर्मों से सदा-सर्वदा के लिए मुक्ति पाना, जन्म-मरण से छुटकारा पाना ही उसका लक्ष्य है। इसी में आत्मा के पुरुषार्थ की पूर्णता है तथा यही आत्मा के शुद्ध, सिद्ध-बुद्धमुक्तस्वरूप की उपलब्धि है। इस चतुर्थ पुरुषार्थ-मोक्ष के लिए पुण्यरूप या पापरूप दोनों प्रकार के कर्म त्याज्य हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र एवं सम्यक्तप ही मोक्ष-पुरुषार्थ के परम साधन हैं जो कर्मक्षय के लिए नितान्त आवश्यक हैं। आत्मा अपने पुरुषार्थ के द्वारा क्रमशः कर्मनिर्जरा करता हुआ आत्मा की विशुद्धतापूर्वक सर्वथा कर्मक्षय कर सकता है। यही तथ्य शास्त्रकार के द्वारा ध्वनित किया गया है।