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[अट्ठाईसवाँ आहारपद] तैजसशरीरी एवं कार्मणशरीरी जीवों में एकत्वापेक्षया सर्वत्र कदाचित् एक आहारक और कदाचित् एक अनाहारक यह एक भंग होता है। बहुत्वापेक्षया-समुच्चय जीवों और एकेन्द्रिय को छोड़कर अन्य स्थानों में तीनतीन भंग जानने चाहिए। समुच्चय जीवों और पृथ्वीकायिकादि पांच एकेन्द्रियों में से प्रत्येक में एक ही भंग पाया जाता है- बहुत आहारक और बहुत अनाहारक।
अशरीरी जीव और सिद्ध आहारक नहीं होते, अतएव एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से अशरीरी सिद्ध अनाहारक ही होते हैं। तेरहवाँ : पर्याप्तिद्वार
१९०४. [१] आहार पजत्तीपज्जत्तए सरीरपज्जत्तीपज्जत्तए इंदियपज्जत्तीपजत्तए आणापाणुपजत्तीपजत्तए भासा-मणपजत्तीपजत्तए एयासु पंचसु विपजत्तीसुजीवेसु मणूसेसु य तियभंगो।
[१९०४-१] आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति तथा भाषा-मन:पर्याप्ति इन पांच (छह) पर्याप्तियों से पर्याप्त जीवों और मनुष्यों में तीन-तीन भंग होते हैं।
[२] अवसेसा आहारगा, णो अणाहारगा।
[१९०४-२] शेष (समुच्चय जीवों और मनुष्यों के सिवाय पूर्वोक्त पर्याप्तियों से पर्याप्त) जीव आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं।
[३] भासा-मणपज्जत्ती पंचेंदियाणं, अवसेसाणं णत्थि। [१९०४-३] विशेषता यह है कि भाषा-मनःपर्याप्ति पंचेन्द्रिय जीवों में ही पाई जाती है, अन्य जीवों में नहीं। १९०५. [१] आहारपजत्तीअपजत्तए णो आहारए, अणाहारए, एगत्तेण वि पुहत्तेण वि। [१९०५-१] आहारपर्याप्ति से अपर्याप जीव एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा आहारक नहीं, अनाहारक होते
[२] सरीरपजत्तीअपजत्तए सिय आहारए सिय अणाहारए। [१९०५-२] शरीरपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव एकत्व की अपेक्षा कदाचित् आहारक, कदाचित् अनाहारक होता
__[३] उवरिल्लियासु चउसु अपजत्तीसु णेरइय-देव-मणूसेसु छब्भंगा, अवसेसाणं जीवेगिदियवजो तियभंगो।
[१९०५-३] आगे की (अन्तिम) चार अपर्याप्तियों वाले (शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति एवं भाषा-मनःपर्याप्ति से अपर्याप्तक) नारकों, देवों और मनुष्यों में छह भंग पाये जाते हैं । शेष में समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर तीन भंग पाये जाते हैं। १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ६८३-६८४
(ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. २, पृ. ५१५