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________________ १४६] [अट्ठाईसवाँ आहारपद] तैजसशरीरी एवं कार्मणशरीरी जीवों में एकत्वापेक्षया सर्वत्र कदाचित् एक आहारक और कदाचित् एक अनाहारक यह एक भंग होता है। बहुत्वापेक्षया-समुच्चय जीवों और एकेन्द्रिय को छोड़कर अन्य स्थानों में तीनतीन भंग जानने चाहिए। समुच्चय जीवों और पृथ्वीकायिकादि पांच एकेन्द्रियों में से प्रत्येक में एक ही भंग पाया जाता है- बहुत आहारक और बहुत अनाहारक। अशरीरी जीव और सिद्ध आहारक नहीं होते, अतएव एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से अशरीरी सिद्ध अनाहारक ही होते हैं। तेरहवाँ : पर्याप्तिद्वार १९०४. [१] आहार पजत्तीपज्जत्तए सरीरपज्जत्तीपज्जत्तए इंदियपज्जत्तीपजत्तए आणापाणुपजत्तीपजत्तए भासा-मणपजत्तीपजत्तए एयासु पंचसु विपजत्तीसुजीवेसु मणूसेसु य तियभंगो। [१९०४-१] आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति तथा भाषा-मन:पर्याप्ति इन पांच (छह) पर्याप्तियों से पर्याप्त जीवों और मनुष्यों में तीन-तीन भंग होते हैं। [२] अवसेसा आहारगा, णो अणाहारगा। [१९०४-२] शेष (समुच्चय जीवों और मनुष्यों के सिवाय पूर्वोक्त पर्याप्तियों से पर्याप्त) जीव आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। [३] भासा-मणपज्जत्ती पंचेंदियाणं, अवसेसाणं णत्थि। [१९०४-३] विशेषता यह है कि भाषा-मनःपर्याप्ति पंचेन्द्रिय जीवों में ही पाई जाती है, अन्य जीवों में नहीं। १९०५. [१] आहारपजत्तीअपजत्तए णो आहारए, अणाहारए, एगत्तेण वि पुहत्तेण वि। [१९०५-१] आहारपर्याप्ति से अपर्याप जीव एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा आहारक नहीं, अनाहारक होते [२] सरीरपजत्तीअपजत्तए सिय आहारए सिय अणाहारए। [१९०५-२] शरीरपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव एकत्व की अपेक्षा कदाचित् आहारक, कदाचित् अनाहारक होता __[३] उवरिल्लियासु चउसु अपजत्तीसु णेरइय-देव-मणूसेसु छब्भंगा, अवसेसाणं जीवेगिदियवजो तियभंगो। [१९०५-३] आगे की (अन्तिम) चार अपर्याप्तियों वाले (शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति एवं भाषा-मनःपर्याप्ति से अपर्याप्तक) नारकों, देवों और मनुष्यों में छह भंग पाये जाते हैं । शेष में समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर तीन भंग पाये जाते हैं। १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ६८३-६८४ (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. २, पृ. ५१५
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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