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[प्रज्ञापनासूत्र]
[१४५ बारहवाँ : शरीरद्वार
१९०३. [१] ससरीरी जीवेगिंदियवजो तियभंगो।
[१९०३-१] समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर शेष (सशरीरी नारकादि) जीवों में (बहुत्वापेक्षया) तीन भंग पाये जाते हैं।
[२] ओरालियसरीरीसु जीव-मणूसेसु तियभंगो। [१९०३-२] औदारिकशरीरी जीवों और मनुष्यों में तीन भंग पाये जाते हैं। [३] अवसेसा आहारगा, णो अणाहारगा, जेसिं अत्थि ओरालियसरीरं।
[१९०३-३] शेष जीवों और (मनुष्यों से भिन्न) औदारिकशरीरी आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। किन्तु जिनके औदारिक शरीर होता है, उन्हीं का कथन करना चाहिए।
[४] वेउव्वियसरीरी आहारगसरीरी य आहारगा, णो अणाहारगा, जेसिं अत्थि।
[१९०३-४] वैक्रियशरीरी और आहारकशरीरी आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। किन्तु यह कथन जिनके वैक्रियशरीर और आहारकशरीर होता है, उन्हीं के लिए है।
[५] तेय-कम्मगसरीरी जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो।
[१९०३-५] समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर तैजसशरीर और.कार्मणशरीर वाले जीवों में तीन भंग पाये जाते हैं।
[६] असरीरी जीवा सिद्धा य णो आहारगा, अणाहारगा। दारं १२॥ [१९०३-६] अशरीरी जीव और सिद्ध आहारक नहीं होते, अनाहारक होते हैं। [बारहवाँ पद]
विवेचन - शरीरद्वार के आधार से प्ररूपणा- समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर शेष सशरीरी जीवों में बहुत्व की विवक्षा से तीन भंग और एकत्व की अपेक्षा से सर्वत्र एक ही भंग पाया जाता है - कदाचित् एक आहारक और कदाचित् एक अनाहारक। समुच्चय सशरीरी जीवों और एकेन्द्रियों में बहुत आहारक बहुत अनाहारक. यह एक भंग पाया जाता है। __ औदारिकशरीरी - जीवों और मनुष्यों में तीन भंग तथा इनसे भिन्न औदारिकशरीरी आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। यह कथन औदारिकशरीरधारियों पर ही लागू होता है। नारक, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के औदारिकशरीर नहीं होवा, अतः उनके लिए यह कथन नहीं है।
बहुत्व की अपेक्षा से - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रियादि तीन विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में बहुत आहारक ही कहना चाहिए, अनाहारक नहीं, क्योंकि विग्रहगति होने पर भी उनमें औदारिक शरीर का सद्भाव होता है।
वैक्रियशरीरी और आहारकशरीरी आहारक भी होते हैं, अनाहारक नहीं। परन्तु यह कथन उन्हीं के लिए है, जिनके वैक्रियशरीर और आहारकशरीर होता है। नारकों और वायुकायिकों, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, मनुष्यों तथा चारों जाति के देवों के ही वैक्रियशरीर होता है। आहारकशरीर केवल मनुष्यों के ही होता है।