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[अट्ठाईसवाँ आहारपद] [१८८३-१ उ.] गौतम! वह कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक होता है। [२] एवं जाव वेमाणिए। [१८८३-२] इसी प्रकार वैमानिक तक जानना चाहिए। १८८४. सलेसा णं भंते! जीवा किं आहारगा अणाहारणा? गोयमा! जीवेगिंदियवजो तियभंगो। .. [१८८४ प्र.] भगवन् ! (बहुत) सलेश्य जीव आहारक होते हैं या अनाहारक होते हैं ? [१८८४ उ.] गौतम! समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर इनके तीन भंग होते हैं। १८८५. [१] एवं कण्हलेसाए वि णीललेसाए वि काउलेसाए वि जीवेगिंदियवजो तियभंगो।
[१८८५-१] इसी प्रकार कृष्णलेश्यी, नीललेश्यी और कापोतलेश्यी के विषय में भी समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर (पूर्वोक्त प्रकार से नारक आदि प्रत्येक में) तीन भंग कहने चाहिए।
[२] तेउलेस्साए पुढवि-आउ-वणस्सइकाइयाणं छब्भंगा।
[१८८५-२] तेजोलेश्या की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिकों में छह भंग (कहने चाहिए।)
[३] सेसाणं जीवादीओ तियभंगो जेसिं अत्थि तेउलेस्सा। ___ [१८८५-३] शेष जीव आदि (अर्थात् जीव से लेकर वैमानिक पर्यन्त) में, जिनमें तेजोलेश्या पाई जाती है, उनमें तीन भंग (कहने चाहिए।)
[४] पम्हलेस्साए सुक्कलेस्साए य जीवादीओ तियभंगो। [१८८५-४] पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या वाले (जिनमें पाई जाती है, उन) जीवों आदि में तीन भंग पाए जाते
१८८६. अलेस्सा जीवा मणूसा सिद्धा य एगत्तेण वि पुहत्तेण वि णो आहारगा, अणाहारगा। दार ४॥
[१८८६] अलेश्य (लेश्या रहित) समुच्चय जीव, मनुष्य, (अयोगी केवली और सिद्ध एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से आहारक नहीं होते, किन्तु अनाहारक ही होते हैं। [चतुर्थ द्वार]
विवेचन - सलेश्य जीवों में आहारकता-अनाहारकता की प्ररूपणा - एकत्व की अपेक्षा - सलेश्य जीव तथा चौबीसदण्डकवर्ती जीव विग्रहगति, केवलीसमुद्घात और शैलेशी अवस्था की अपेक्षा अनाहारक और अन्य अवस्थाओं में आहारक समझने चाहिए।
बहुत्व की अपेक्षा - समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर शेष नारक आदि प्रत्येक में पूर्वोक्त युक्ति से तीन भंग होते हैं। जीवों और एकेन्द्रियों में सिर्फ एक भंग – (बहुत आहारक और बहुत अनाहारक) पाया जाता है, क्योंकि दोनों सदैव बहुत संख्या में पाए जाते हैं। कृष्ण-नील-कापोतलेश्यी नारक आदि में भी समुच्चय सलेश्य