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________________ १३४] [अट्ठाईसवाँ आहारपद] [१८८३-१ उ.] गौतम! वह कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक होता है। [२] एवं जाव वेमाणिए। [१८८३-२] इसी प्रकार वैमानिक तक जानना चाहिए। १८८४. सलेसा णं भंते! जीवा किं आहारगा अणाहारणा? गोयमा! जीवेगिंदियवजो तियभंगो। .. [१८८४ प्र.] भगवन् ! (बहुत) सलेश्य जीव आहारक होते हैं या अनाहारक होते हैं ? [१८८४ उ.] गौतम! समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर इनके तीन भंग होते हैं। १८८५. [१] एवं कण्हलेसाए वि णीललेसाए वि काउलेसाए वि जीवेगिंदियवजो तियभंगो। [१८८५-१] इसी प्रकार कृष्णलेश्यी, नीललेश्यी और कापोतलेश्यी के विषय में भी समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर (पूर्वोक्त प्रकार से नारक आदि प्रत्येक में) तीन भंग कहने चाहिए। [२] तेउलेस्साए पुढवि-आउ-वणस्सइकाइयाणं छब्भंगा। [१८८५-२] तेजोलेश्या की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिकों में छह भंग (कहने चाहिए।) [३] सेसाणं जीवादीओ तियभंगो जेसिं अत्थि तेउलेस्सा। ___ [१८८५-३] शेष जीव आदि (अर्थात् जीव से लेकर वैमानिक पर्यन्त) में, जिनमें तेजोलेश्या पाई जाती है, उनमें तीन भंग (कहने चाहिए।) [४] पम्हलेस्साए सुक्कलेस्साए य जीवादीओ तियभंगो। [१८८५-४] पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या वाले (जिनमें पाई जाती है, उन) जीवों आदि में तीन भंग पाए जाते १८८६. अलेस्सा जीवा मणूसा सिद्धा य एगत्तेण वि पुहत्तेण वि णो आहारगा, अणाहारगा। दार ४॥ [१८८६] अलेश्य (लेश्या रहित) समुच्चय जीव, मनुष्य, (अयोगी केवली और सिद्ध एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से आहारक नहीं होते, किन्तु अनाहारक ही होते हैं। [चतुर्थ द्वार] विवेचन - सलेश्य जीवों में आहारकता-अनाहारकता की प्ररूपणा - एकत्व की अपेक्षा - सलेश्य जीव तथा चौबीसदण्डकवर्ती जीव विग्रहगति, केवलीसमुद्घात और शैलेशी अवस्था की अपेक्षा अनाहारक और अन्य अवस्थाओं में आहारक समझने चाहिए। बहुत्व की अपेक्षा - समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर शेष नारक आदि प्रत्येक में पूर्वोक्त युक्ति से तीन भंग होते हैं। जीवों और एकेन्द्रियों में सिर्फ एक भंग – (बहुत आहारक और बहुत अनाहारक) पाया जाता है, क्योंकि दोनों सदैव बहुत संख्या में पाए जाते हैं। कृष्ण-नील-कापोतलेश्यी नारक आदि में भी समुच्चय सलेश्य
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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