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[प्रज्ञापनासूत्र]
[१३५ जीवों के समान प्रत्येक में तीन भंग (समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर) कहने चाहिए।'
तेजोलेश्यी जीवों के आहारकता-अनाहारकता - एकत्व की अपेक्षा से तेजोलेश्यावान् पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियों में प्रत्येक में एक ही भंग (पूर्ववत्) समझना चाहिए।
बहुत्व की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक तेजोलेश्यावान् में छह भंग पाये जाते हैं- (१) सब आहारक, (२) सब अनाहारक, (३) एक आहारक एक अनाहारक, (४) एक आहारक बहुत अनाहारक, (५) बहुत आहारक एक अनाहारक और (६) बहुत आहारक बहुत अनाहारक।
इसके अतिरिक्त समुच्चय जीवों से लेकर वैमानिक पर्यन्त जिन-जिन जीवें में तेजोलेश्या पाई जाती है, उन्हीं में प्रत्येक में पूवर्वत् तीन-तीन भंग कहने चाहिए, शेष में नहीं। अर्थात् - नारकों में, तेजस्कायिकों में, वायुकायिकों में, द्वीन्द्रियों, त्रीन्द्रियों और चतुरिन्द्रियों में तेजोलेश्या सम्बन्धी वक्तव्यता नहीं कहनी चाहिए, क्योंकि इनमें तेजोलेश्या नहीं होती।
__ पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिकों में तेजोलेश्या इस प्रकार है कि भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्मदि देवलोकों के वैमानिक देव तेजोलेश्या वाले होते हैं, वे च्यवन कर पृथ्वीकायिकादि तीनों में उत्पन्न हो सकते हैं, इस दृष्टि से पृथ्वीकायिकादित्रय में तेजोलेश्या सम्भव है।
पद्म-शुक्ललेश्यायुक्त जीवों की अपेक्षा आहारक-अनाहारक-विचारणा - पंचेन्द्रियतिर्यचों, मनुष्यों, वैमानिकदेवों और समुच्चय जीवों में ही पद्म शुक्ललेश्याद्वय पाई जाती है, अतएव इनमें एकत्व की विवक्षा से पूर्ववत एक ही भंग होता है तथा बहत्व की अपेक्षा पूर्ववत तीन भंग होते हैं ___ लेश्यारहित जीवों में अनाहारकता - समुच्चय जीव, मनुष्य, अयोगिकेवली और सिद्ध लेश्यारहित होते हैं, अतएव ये एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से अनाहारक ही होते हैं, आहारक नहीं। पंचम : दृष्टिद्वार
१८८७. [१] सम्मद्दिट्ठी णं भंते! जीवे कि आहारए अणाहारए ? गोयमा! सिय आहारए सिय अणाहारए। [१८८७-१ प्र.] भगवन् ! सम्यग्दृष्टि जीव आहारक होता है या अनाहारक होता है ? [१८८७-१ उ.] गौतम ! वह कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है।
[२] बेइंदिय-तेइंदिय-चरिंदिया छब्भंगा। __ [१८८७-२] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय (सम्यग्दृष्टियों) में पूर्वोक्त छह भंग होते हैं। १. प्रज्ञापना, मलयवृत्ति. अभि.रा.कोष, भा. २, पृ. ५१२ २. (क) प्रज्ञापनाचूणि - 'जेणं तेसु भवणवइ-वाणमंतर-सोहम्मीसाणया देवा उववजति तेणं तेउलेस्सा लब्भइ।'
(ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि.रा.कोष. भा. २, पृ. ५१२ ३. वही. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. २, पृ. ५१२