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[अट्ठाईसवाँ आहारपद]
[३] सिद्धा अणहारगा। [१८८७-३] सिद्ध अनाहारक होते हैं। [४] अवसेसाणं तियभंगो। [१८८७-४] शेष सभी (सम्यग्दृष्टि जीवों) में (एकत्व की अपेक्षा से) तीन भंग (पूर्ववत्) होते हैं। १८८८.मिच्छद्दिट्ठीसु जीवेगिंदियवज्जो तियभंयो। [१८८८] मिथ्यादृष्टियों में समुच्चय जीव और एकेन्द्रियों को छोड़कर (प्रत्येक में) तीन-तीन भंग पाये जाते
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१८८९. [१] सम्मामिच्छहिट्ठी णं भंते! किं आहारए अणाहारए ? गोयमा! आहारए, णो अणाहारए। [१८८१-१ प्र.] भगवन् ! सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव आहारक होता है या अनाहारक होता हैं ? [१८८१-१ उ.] गौतम! वह आहारक होता है, अनाहारक नहीं होता है। [२] एवं एगिंदिय-विगलिंदियवजं जाव वेमाणिए।
[१८८१-२] एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़ कर वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार (का कथन करना चाहिए।)
[३] एवं पुहत्तेण वि। दारं ५ ॥ [१८८१-३] बहुत्व की अपेक्षा से भी इसी प्रकार की वक्तव्यता समझनी चाहिए। [पंचम द्वार]
विवेचन - दृष्टि की अपेक्षा से आहारक-अनाहारक-प्ररूपणा – प्रस्तुत में सम्यग्दृष्टि पद का अर्थ- औपशमिक, सास्वादन, क्षायोपशमिक और वेदक तथा क्षायिक सम्यक्त्व वाले समझना चाहिए, क्योंकि यहाँ सामान्यपद से सम्यग्दृष्टि शब्द प्रयुक्त किया गया है। औपशमिक सम्यग्दृष्टि आदि प्रसिद्ध हैं । वेदक सम्यग्दृष्टि वह है, जो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के चरम समय में हो और जिसे अगले ही समय में क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होने वाली हो।
सम्यग्दृष्टि जीवादि पदों में – एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से क्रमशः एक-एक भंग कहना चाहिए, यथा जीव आदि पदों में एकत्वापेक्षया – कदाचित् एक आहारक और एक अनाहारक, यह एक भंग और बहुत्व की अपेक्षा – बहुत आहारक और बहुत अनाहारक, यह एक भंग होता है। इनमें पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियों की वक्तव्यता नहीं कहनी चाहिए, क्योंकि इनमें सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि दोनों का अभाव होता है। विकलेन्द्रिय सम्यग्दृष्टियों में पूर्वोक्तवत् छह भंग कहने चाहिए। द्वीन्द्रियादि तीन विक्लेन्द्रियों में अपर्याप्त अवस्था में सास्वादनसम्यक्त्व की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टित्व समझना चाहिए। सिद्ध क्षायिक सम्यक्त्वी होते हैं और सदैव अनाहारक होते हैं। शेष अर्थात् नैरयिकों, भवनपतियों, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, मनुष्यों, वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों में जो सम्यग्दृष्टि हैं, पूर्वोक्त युक्ति से उनमें तीन भंग पाये जाते हैं।