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________________ [ अट्ठाईसवाँ आहारपद ] - क्रोधकषायी की प्ररूपणा चौबीस दण्डकों में एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से एक भंग कदाचित् आहारक कदाचित् अनाहारक होता है। क्रोधकषायी समुच्चय जीवों तथा एकेन्द्रियों में केवल एक ही भंग - बहुत आहारक और बहुत अनाहारक होता है। शेष जीवों में देवों को छोड़कर पूर्वोक्त रीति से तीन भंग होते हैं। विशेषदेवों के छह भंग (१) सभी क्रोधकषायी देव आहारक होते हैं। यह भंग तब घटित होता है जब कोई भी क्रोधकषायी देव विग्रहगति समापन्न नहीं होता, (२) कदाचित् सभी क्रोधकषायी देव अनाहारक होते हैं। यह भंग तब घटित होता है, जब कोई भी क्रोधकषायी देव आहारक नहीं होता। यहाँ मान आदि के उदय से रहित क्रोध का उदय विवक्षित है, इस कारण क्रोधकषायी आहारक देव का अभाव सम्भव है, (३) कदाचित् एक आहारक और एक अनाहारक (४) देवों में क्रोध की बहुलता नहीं होती, स्वभाव से ही लोभ की अधिकता होती है, अतः क्रोधकषायी देव कदाचित् एक भी पाया जाता है, (५) कदाचित् बहुत आहारक और एक अनाहारक और (६) कदाचित् बहुत आहारक और बहुत अनाहारक पाये जाते हैं। १४०] - मानकषायी और मायाकषायी जीवादि में एकत्व की अपेक्षा से पूर्ववत् एक - एक भंग । बहुत्व की अपेक्षा से • मान मायाकषायी देवों और नारकों में प्रत्येक में ६ भंग पूर्ववत् समझना चाहिए। देवों और नारकों में मान और माया कषाय की विरलता पाई जाती है, देवों में लोभ की और नारकों में क्रोध की बहुलता होती है। इस कारण ६ ही भंग सम्भव हैं। मान-मायाकषायी शेष जीवों में समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर तीन भंग पूर्ववत् होते हैं। समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों में एक भंग - बहुत आहारक- बहुत अनाहारक• होता है। - — लोभकषायी जीवादि में लोभकषायी नारकों में पूर्ववत् ६ भंग होते हैं, क्योंकि नारकों में लोभ की तीव्रता नहीं होती । नारकों के सिवाय एकेन्द्रियों और समुच्चय जीवों को छोड़कर शेष जीवों में ३ भंग पूर्ववत् पाये जाते हैं । समुच्चयं जीवों और एकेन्द्रियों में प्रत्येक में एक ही भंग - बहुत आहारक और बहुत अनाहारक • पाया जाता हैं। अष्टम : ज्ञानद्वार - - अकषायी जीवों में अकषायी मनुष्य और सिद्ध ही होते हैं। मनुष्यों में उपशान्तकषाय आदि ही अकषायी होते हैं। उनके अतिरिक्त सकषायी होते हैं। अतएव उन सकषायी समुच्चय जीवों, मनुष्यों और सिद्धों में से समुच्चय जीव में और मनुष्य में केवल एक भंग - कदाचित् एक आहारक और एक अनाहारक - पाया जाता है। सिद्ध में एक भंग- अनाहारक ही पाया जाता है। बहुत्व की विवक्षा से समुच्चय जीवों में बहुत आहारक और बहुत एक भंग ही होता है। क्योंकि आहारक केवली और अनाहारक सिद्ध बहु संख्या में उपलब्ध होते हैं। मनुष्यों में पूर्ववत् तीन भंग समझने चाहिये। सिद्धों में केवल एक ही भंग अनाहारक १८९७. गाणी जहा सम्मद्दिट्ठि (सु. १८८७)। [१८९७] ज्ञानी की वक्तव्यता सम्यग्दृष्टि के समान समझनी चाहिए। १. (क) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. ५, ६६४ से ६६७ (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. २, पृ. ५१३-५१४ २. (क) वही, मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. २. पृ. ५१४ (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका भा. ५, पृ. ६६७-६६८ - • अनाहारक पाया जाता है।
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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