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________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [१३९ सप्तम : कषायद्वार १८९४. [१] सकसाइ णं भंते! जीवे किं आहारए अणाहारए ? गोयमा! सिय आहारए सिय अणाहारए। [१८९४-१ प्र.] भगवन् ! सकषाय जीव आहारक होता है या अनाहारक होता है ? [१८९४-१ उ.] गौतम! वह कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। [२] एवं जाव वेमाणिए। [१८९४-२] इसी प्रकार (नारक से लेकर) वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। १८९५. [१] पुहत्तेणं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। ___ [१८९५-१] बहुत्व की अपेक्षा से – जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर (सकषाय नारक आदि में) तीन भंग (पाए जाते हैं।) [२] कोहकसाईसु जीवादिएसु एवं चेव। णवरं देवेसु छब्भंगा। [१८९५-२] क्रोधकषायी जीव आदि में भी इसी प्रकार तीन भंग कहने चाहिए। विशेष यह है कि देवों में छह भंग कहने चाहिए। [३] माणकसाईसु मायाकसाईसु य देव-णेरइएसु छब्भंगा। अवसेसाणं जीवेगिंदियवजो तियभंगो। [१८९५-३] मानकषायी और मायाकषायी देवों और नारकों में छह भंग पाये जाते हैं। शेष जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग पाये जाते हैं। [४] लोभकसाईएसु णेरइएसु छब्भंगा। अवसेसेसु जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। [१८९५-४] लोभकषायी नैरयिकों में छह भंग होते हैं । जीव और एकेन्द्रियों को छोड़कर शेष जीवों में तीन भंग पाये जाते हैं। १८९६. अकसाई जहा णोसण्णी-णोअसण्णी (सु. १८८१-८२) दारं ७ ॥ [१८९६] अकषायी की वक्तव्यता नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी के समान जाननी चाहिए। [सप्तम द्वार] विवेचन - सकषाय जीव और चौबीस दण्डकों में आहारक-अनाहारक की प्ररूपणा - एकत्व की विवक्षा से समुच्चय जीव और चौबीस दण्डकवर्ती जीव पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। बहुत्व की विवक्षा से समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर सकषाय नारकादि में पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार तीन भंग पाये जाते हैं। समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों में एक भंग - बहुत आहारक बहुत अनाहारक होता है। १. (क) अभि. रा. कोष. भा. २, पृ. ५१३ (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका भा. ५, पृ. ६६३
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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