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[प्रज्ञापनासूत्र]
[१४१ १८९८. [१] आभिणिबोहियणाणि-सुयणाणिसु बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिएसु छब्भंगा। अवसेसेसु जीवादीओ तियभंगो जेसिं अत्थि।
[१८९८-१] आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में (पूर्ववत्) छह भंग समझने चाहिए। शेष जीव आदि (समुच्चय जीव और नारक आदि)में जिनमें ज्ञान होता है, उनमें तीन भंग (पाये जाते हैं।)
[२]ओहिणाणी पंचेन्दियतिरिक्खजोणिया आहारगा, णो अणाहारगा।अवसेसेसु जीवादीओ तियभंगो जेसिं अस्थि ओहिणाणं।
[१८९८-२] अवधिज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च आहारक होते हैं अनाहारक नहीं। शेष जीव आदि में, जिनमें अवधिज्ञान पाया जाता है, उनमें तीन भंग होते हैं।
[३] मणपजवणाणी जीवा मणूसा य एगत्तेण वि आहारगा, णो अणाहारगा।
[१८९८-३] मनःपर्यवज्ञानी समुच्चय जीव और मनुष्य एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं।
[४] केवलणाणी जहा णोसण्णी-णोअसण्णी (सु. १८८१-८२)।
[१८९८-४] केवलज्ञनी का कथन (सू. १८८१-८२ में उक्त) नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी के कथन के समान जानना चाहिए।
१८९९. [१] अण्णाणी मइअण्णाणी सुयअण्णाणी जीवेगिंदियवजो तियभंगो।
[१८९९-१] अज्ञानी, मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी में समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग पाये जाते हैं।
[२] विभंगणाणी पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा य आहारगा, णो अणाहरगा अवसेसेसु जीवादीओ तियभंगो। दारं ८॥
[१८९९-२] विभंगज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। अवशिष्ट जीव आदि में तीन भंग पाये जाते हैं।
विवेचन. - ज्ञानी जीवों में आहारक-अनाहारक - प्ररूपणा - समुच्चय ज्ञानी (सम्यग्ज्ञानी) में सम्यग्दृष्टि के समान प्ररूपणा जाननी चाहिए, क्योंकि एकेन्द्रिय सदैव मिथ्यादृष्टि होने के कारण अज्ञानी ही होते हैं, इसलिए एकेन्द्रिय को छोड़कर एकत्व की अपेक्षा से समुच्चय जीव तथा वैमानिक तक शेष १९ दण्डकों में ज्ञानी कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। बहुत्व की विवक्षा से समुच्चयज्ञानी जीव अहारक भी होते हैं। अनाहारिक भी। नारकों से लेकर स्तनितकुमारों तक ज्ञानी जीवों में पूर्वोक्त रीति से.तीन भंग होते हैं। पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, मनुष्यों, वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों में भी तीन भंग ही पाए जाते हैं। तीन विकलेन्द्रिय ज्ञानियों में छह भंग प्रसिद्ध हैं । सिद्ध ज्ञानी अनाहारक ही होते हैं।