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________________ १४२] [अट्ठाईसवाँ आहारपद] आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी में एकत्व की अपेक्षा से - पूर्ववत् समझना। बहुत्व की अपेक्षा सेतीन विकलेन्द्रियों में छह भंग होते हैं। उनके अतिरिक्त एकेन्द्रियों को छोड़कर अन्य जीवादि पदों में, जिनमें आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान हो, उनमें प्रत्येक में तीन-तीन भंग कहने चाहिए। एकेन्द्रिय जीवों में आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान का अभाव होता है। इसलिए उनकी पृच्छा नहीं करनी चाहिए। अवधिज्ञानी में – अवधिज्ञान पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य, देव और नारक को होता है, अन्य जीवों को नहीं। अतः एकेन्द्रियों एवं तीन विकलेन्द्रियों को छोड़कर पंचेन्द्रियतिर्यञ्च अवधिज्ञानी सदैव आहारक ही होते हैं । यद्यपि विग्रहगति में पंचेन्द्रियतिर्यञ्च अनाहारक होते हैं, किन्तु उस समय उनमें अवधिज्ञान नहीं होता। चूँकि पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों को गुणप्रत्यय अवधिज्ञान होता है-हो सकता है, मगर विग्रहगति के समय गुणों का अभाव होता है, इस कारण अवधिज्ञान का भी उस समय अभाव होता है। इसी कारण अवधिज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च अनाहारक नहीं हो सकता। एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों को छोडकर पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के अतिरिक्त अन्य स्थानों में समुच्चय जीव से लेकर नारकों, मनुष्यों एवं समस्त जाति के देवों में प्रत्येक में तीन-तीन भंग कहने चाहिए, परन्तु कहना उन्हीं में चाहिए जिनमें अवधिज्ञान का अस्तित्व हो। एकत्व की विवक्षा से पूर्ववत् प्ररूपणा समझनी चाहिए। मनःपर्यवज्ञानी में – मन:पर्यवज्ञान मनुष्यों में ही होता है। अत: उसके विषय में दो पद ही कहते हैं - मनःपर्यवज्ञानी जीव और मनुष्य। एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से ये दोनों मनःपर्यवज्ञानी आहारक ही होते है, अनाहारक नहीं, क्योंकि विग्रहगति आदि अवस्थाओं में मन:पर्यवज्ञान होता ही नहीं है। केवलज्ञानी में – केवलज्ञानी की प्ररूपणा में तीन पद होते है – समुच्चय जीवपद, मनुष्यपद और सिद्धपद। इन तीन के सिवाय और किसी जीव में केवलज्ञान का सद्भाव नहीं होता। प्रस्तुत में केवलज्ञानी की आहारक-अनाहारक विषयक प्ररूपणा नोसंज्ञी-नोअसंजीवत् बताई गई है। अर्थात् समुच्चय जीवपद और मनुष्यपद में एकत्व की अपेक्षा से एकभंग – कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक – होता है। सिद्धपद में अनाहारक ही कहना चाहिए। बहुत्व की विवक्षा से – समुच्चय जीवों में आहारक भी होते हैं, अनाहारक भी होते हैं। मनुष्यों में पूर्वोक्त भंग कहना चाहिए। सिद्धों में अनाहारक ही होते हैं। ___ अज्ञानी की अपेक्षा से - अज्ञानियों में, मत्यज्ञानियों और श्रुताज्ञानियों में बहुत्व की विवक्षा से, जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर अन्य पदों में प्रत्येक में तीन भंग कहने चाहिए। समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों में आहारक भी होते हैं, अनाहारक भी। विभंगज्ञानी में एकत्व की विवक्षा से पूर्ववत् ही समझना चाहिए। बहुत्व की विवक्षा से - विभगज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च एवं मनुष्य आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं होते, क्योंकि विग्रहगति में विभंगज्ञानयुक्त पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों और मनुष्यों में उत्पत्ति होना सम्भव नहीं है। पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों से भिन्न स्थानों में एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों को छोड़कर जीव से लेकर प्रत्येक स्थान में तीन भंग कहना चाहिए। १. (क) प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, अ. रा. को. भाग २, पृ. ५१४ (ख) प्रज्ञापना, (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग ५, पृ. ६७५ से ६७७ तक
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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