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________________ १०८] [अट्ठाईसवाँ आहारपद] [१८०५ उ.] गौतम! वे उन पुद्गलों को श्रोत्रेन्द्रिय के रूप में यावत् स्पर्शेन्द्रिय के रूप में,अनिष्टरूप से, अकान्तरूप से, अप्रियरूप से, अशुभरूप से , अमनोज्ञरूप से, अमनामरूप से , अनिश्चितता से (अथवा अनिच्छित रूप से,) अनभिलषितरूप से , भारीरूप से, हल्केरूप से नहीं, दुःखरूप से सुखरूप से नहीं, उन सबका बार-बार परिणमन करते हैं। __विवेचन - आभोगनिर्वर्तित और अनाभोगनिवर्तित का स्वरूप - नारकों का आहार दो प्रकार का है- आभोगनिर्वर्तित और अनाभोगनिर्वर्तित । आभोगनिर्वर्तित का अर्थ है - इच्छापूर्वक-उपयोगपूर्वक होने वाला आहार तथा अनाभोगनिवर्तित का अर्थ है - बिना इच्छा के-बिना उपयोग के होने वाला आहार। अनाभोगनिर्वर्तित आहार, भव पर्यन्त प्रतिसमय निरन्तर होता रहता है । यह आहार ओजआहार आदि के रूप में होता है। आभोगनिर्वर्तित आहार की इच्छा असंख्यात समय प्रमाण अन्तर्महर्त में उत्पन्न होती है। मैं आहार करूं. इस प्रकार की अभिलाषा एक अन्तर्मुहूर्त के अंदर पैदा हो जाती है। यही कारण है कि नारकों की आहारेच्छा अन्तर्मुहूर्त की कही गई है। यह तीसरा द्वार है। नैरयिक किस वस्तु का आहार करते हैं? - द्रव्य से वे अनन्तप्रदेशी पुद्गलों का आहार करते हैं, क्योंकि संख्यातप्रदेशी या असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध जीव के द्वारा ग्रहण नहीं किये जा सकते, उनका ग्रहण होना सम्भव नहीं है। क्षेत्र की अपेक्षा से वे असंख्यातप्रदेशावगाढ़ स्कन्धों का आहार करते हैं । काल की अपेक्षा से वे जघन्य, मध्यम या उत्कृष्ट किसी भी स्थिति वाले स्कन्धों को ग्रहण करते हैं। भाव से वे वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श वाले द्रव्यों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्योंकि प्रत्येक परमाणु में एकादि वर्ण गन्ध, एक रस और दो स्पर्श अवश्य पाए जाते हैं। इसके पश्चात् एकादि वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, से अनेक वर्णादियुक्त आहार ग्रहण करने के विकल्प बताये गए हैं। तदनन्तर यह भी बताया गया है कि वे (नारक) आत्मप्रदेशों से स्पृष्ट द्रव्यों (सम्बद्ध पुद्गलों) का तथा नियमतः छह दिशाओं से आहार करते हैं । विविध पहलुओं से नारकों के आहार के विषय में प्ररूपणा - नारक वर्ण की अपेक्षा प्रायः काले-नीले वर्णवाले, रस की अपेक्षा तिक्त और कटुक रसवाले, गन्ध की अपेक्षा दुर्गन्धवाले तथा स्पर्शसे कर्कश, गुरु, शीत और रूक्ष स्पर्शवाले अशुभ द्रव्यों का आहार करते हैं। यहां बहुलतासूचक शब्द - ओसन्न का प्रयोग किया गया है। जिसका आशय यह है कि अशुभ अनुभाव वाले मिथ्यादृष्टि नारक ही प्रायः उक्त कृष्णवर्ण आदि वाले द्रव्यों का आहार करते हैं। किन्तु जो नारक आगामी भव में तीर्थंकर आदि होने वाले हैं, वे ऐसे द्रव्यों का आहार नहीं करते हैं।' नारक आहार किस प्रकार से करते हैं? – आहार किये जाने वाले पुद्गलों के पुराने वर्ण-गन्ध-रसस्पर्शगुण का परिणमन, परिपीडन, परिशाटन एवं विध्वंस करके, अर्थात्-उन्हें पूरी तरह से बदल कर, उनमें नये वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शगुण को उत्पन्न करके, अपने शरीर-क्षेत्र में अवगाढ पुद्गलों का समस्त आत्मप्रदेशों से आहार करते है। १, २. प्रज्ञापना (हरिभद्रीय टीका) भा. ५, पृ. ५४९ से ५५२ १ से ३ प्रज्ञापना (हरिभद्रीय टीका.) भा. ५, पृ. ५४९ से ५५२
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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