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________________ १८२] [प्रज्ञापनासूत्र] को प्राप्त नहीं है, उसके विपाकोदय को दूर कर देना-स्थगित कर देना, उपशम कहलाता है। जिस अवधिज्ञान में क्षयोपशम ही मुख्य कारण हो, वह क्षयोपशम-प्रत्यय या क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहलाता है।' किसे कौन सा अवधिज्ञान और क्यों ?- भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान चारों जाति के देवों को तथा रत्नप्रभा आदि सातों नरकभूमियों के नारकों को होता है। प्रश्न होता है कि अवधिज्ञान क्षायोपशमिक भाव में है और नारकादि भव औदयिक भाव में है, ऐसी स्थिति में देवों और नारकों को अवधिज्ञान कैसे हो सकता है? इसका समाधान यह है कि वस्तुतः भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान भी क्षायोपशमिक ही है, किन्तु वह क्षयोपशम देव और नारक-भव का निमित्त मिलने पर अवश्यम्भावी होता है। जैसे-पक्षीभव में आकाशगमन की लब्धि अवश्य प्राप्त हो जाती है। इसी प्रकार देवभव और नारकभव का निमित्त मिलते ही देवों और नारकों को अवधिज्ञान की उपलब्धि अवश्यमेव हो जाती है। ___ दो प्रकार के प्राणियों का अवधिज्ञान क्षायोपशमिक अर्थात्-क्षयोपशम-निमित्तक है, वह है-मनुष्यों और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों को। इन दोनों को अवधिज्ञान अवश्यम्भावी नहीं है, क्योंकि मनुष्यभव और तिर्यञ्चभव के निमित्त से इन दोनों को अवधिज्ञान नहीं होता, बल्कि मनुष्यों या तिर्यञ्चपचेन्द्रियों में भी जिनके अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम हो जाए, उन्हें ही अवधिज्ञान प्राप्त होता है, अन्यथा नहीं। इसे कर्मग्रन्थ की भाषा में गुणप्रत्यय भी कहते हैं । यद्यपि पूर्वोक्त दोनों प्रकार के अवधिज्ञान क्षायोपशमिक ही हैं, तथापि पूर्वोक्त निमित्तभिन्नता के कारण दोनों में अन्तर है। द्वितीय : अवधि-विषय द्वार ११८३. णेरइया णं भंते! केवतियं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति ? गोयमा! जहण्णेणं अद्धगाउयं, उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई ओहिणा जाणंति पासंति । [१९८३ प्र.] भवगन् ! नैरयिक अवधि (ज्ञान) द्वारा कितने क्षेत्र को जानते देखते हैं ? [१९८३ उ.] गौतम! वे जघन्यतः आधा गाऊ (गव्यूति) और उष्कृष्टतः चार गाऊ (क्षेत्र को) अवधि (ज्ञान) से जानते देखते हैं। १९८४. रयणप्पभापुढविणेरइया णं भंते ! केवतियं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति ? . गोयमा! जहण्णेणं अद्धट्ठाई, गाउआई, उक्कोसेणं चत्तारि गाउआई ओहिणा जाणंति पासंति । [१९८४ प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक अवधि (ज्ञान) से कितने क्षेत्र को जानते देखते हैं ? [१९८४ उ.] गौतम! वे जघन्य साढ़े तीन गाऊ और उत्कृष्ट चार गाऊ (क्षेत्र) अवधि (ज्ञान) से जानते-देखते हैं। १९८५. सक्करप्पभापुढविणेरइया जहण्णेणं तिण्णि गाउआई, उक्कोसेणं अछुट्ठाई गाउआई ओहिणा जाणंति पासंति । १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ.७८० (ख) पण्णवणासुतं भा. २, (प्रस्तावना) पृ. १४०-१४१ २. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ७८० से ७८४ तक
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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