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________________ ३८] [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] समर्थ न हो, वह स्थावर कहलाता है। जैसे पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय जीव। जिस कर्म के उदय से स्थावर-पर्याय प्राप्त हो, उसे स्थावरनामकर्म कहते हैं। (२३) सूक्ष्म-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से बहुत से प्राणियों के शरीर समुदित होने पर भी छद्मस्थ को दृष्टिगोचर न हों, वह सूक्ष्मनामकर्म है। इस कर्म के उदय से जीव अत्यन्त सूक्ष्म होता है। (२४) बादर-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से जीव को बादर (स्थूल) काय की प्राप्ति हो, अथवा जो कर्म शरीर में बादर-परिणाम को उत्पन्न करता है, वह बादर नामकर्म है। (२५) पर्याप्त-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से जीव अपने योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण करने में समर्थ होता है, अर्थात् आहारादि के पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें आहारदि के रूप में परिणत करने की कारणभूत आत्मा की शक्ति से सम्पन्न हो, वह पर्याप्त नामकर्म है। (२६) अपर्याप्त-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से जीव अपने योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण न कर सके, वह अपर्याप्तनामकर्म है। (२७) साधारणशरीर-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से अनन्त जीवों का एक ही शरीर हो, जैसे - निगोद के जीव। (२८) प्रत्येक शरीर - नामकर्म - जिस कर्म के उदय से प्रत्येक जीव का शरीर पृथक्-पृथक् हो। (२९) स्थिर-नामकर्म - जिस कर्म के उदय शरीर, अस्थि, दाँत आदि शरीर के अवयव स्थिर हों, उसे स्थिर नामकर्म कहते हैं। (३०) अस्थिर-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से जीभ आदि शरीर के अवयव अस्थिर (चपल) हों । (३१) शुभ-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से नाभि से ऊपर के अवयव शुभ हों । (३२) अशुभ-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से नाभि से नीचे के चरण आदि शरीरावयव अशुभ हों, वह अशुभनामकर्म है। पैर से स्पर्श होने पर अप्रसन्नता होती है, यही अशुभत्व का लक्षण है। (३३) सुभग-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से किसी का उपकार करने पर और किसी प्रकार का सम्बन्ध न होने पर भी व्यक्ति सभी को प्रिय लगता हो, वह सुभगनामकर्म है। (३४) दुर्भग-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से उपकारक होने पर भी जीव लोक में अप्रिय हो, वह दुर्भगनामकर्म है। (३५) सुस्वर-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर मधुर और सुरीला हो, श्रोताओं के लिए प्रमोद का कारण हो, वह सुस्वरनामकर्म है। जैसे - कोयल का स्वर । . (३६) दुःस्वर-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर कर्कश और फटा हुआ हो, उसका स्वर श्रोताओं की अप्रीति का कारण हो। जैसे – कौए का स्वर। (३७) आदेय-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से जीव जो कुछ भी कहे या करे, उसे लोग प्रमाणभूत
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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