________________
[३९
[प्रज्ञापनासूत्र] माने, स्वीकार कर लें, उसके वचन का आदर करें, वह आदेयनामकर्म है। .
(३८) अनादेय-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से समीचीन भाषण करने पर भी उसके वचन ग्राह्य या मान्य न हों, लोग उसके वचन का अनादर करें, वह अनादेयनामकर्म है।
(३९) यश:कीर्ति-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से लोक में यश और कीर्ति फैले। शौर्य, पराक्रम, त्याग, तप आदि के द्वारा उपार्जित ख्याति के कारण प्रशंसा होना, यश:कीर्ति है । अथवा सर्व दिशाओं में प्रसा फैले उसे कीर्ति और एक दिशा में फैले उसे यश कहते हैं।
(४०) अयशःकीर्ति-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से सर्वत्र अपकीर्ति हो, बुराई या बदनामी हो, मध्यस्थजनों के भी अनादर का पात्र हो।
(४१) निर्माण-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से प्राणियों के शरीर में अपनी-अपनी जाति के अनुसार अंगोपांगों का यथास्थान निर्माण हो. उसे निर्माणनामकर्म कहते हैं।
(४२) तीर्थंकर नामकर्म - जिस कर्म के उदय से चौंतीस अतिशय और पैंतीस वाणी के गुण प्रकट हों, वह तीर्थंकरनामकर्म कहलाता है।
नामकर्म के भेदो के प्रभेद - गतिनामकर्म के ४, जातिनाकर्म के ५, शरीरनामकर्म के ५, शरीरांगोपांगनामकर्म के ३, शरीरबन्धननामकर्म के ५, शरीरसंघातनामकर्म के ५, संहनननामकर्म के ६, संस्थाननामकर्म के ६, वर्णानामकर्म के ५, गन्धनामकर्म के २, रसनामकर्म के ५, स्पर्शनामकर्म के ८, अगुरुलघुनामकर्म का एक उपघात, पराघात नामकर्म का एक-एक, आनुपूर्वी नामकर्म के चार तथा आतपनाम, उद्योतनाम, त्रसनाम, स्थावरनाम, सूक्ष्मनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, अपर्याप्तनाम, साधारणशरीरनाम, प्रत्येकशरीरनाम, स्थिरनाम, अस्थिरनाम, शुभनाम, अशुभनाम, सुभगनाम, दुर्भगनाम, सुस्वरनाम, दुःस्वरनाम, आदेयनाम, अनादेयनाम, यश:कीर्तिनाम, अयश:कीर्तिनाम, निर्माणनाम और तीर्थंकरनामकर्म के एक-एक भेद हैं । विहायोगतिनामकर्म के दो भेद हैं।
गोत्रकर्म : स्वरूप और प्रकार - जिस कर्म के उदय से जीव उच्च अथवा नीच कुल में जन्म लेता है उसे गोत्रकर्म कहते है। इसके दो भेद हैं । जिस कर्म के उदय से लोक में सम्मानित, प्रतिष्ठित जाति, कुल आदि की प्राप्ति होती है तथा उत्तम बल, तप, रूप, ऐश्वर्य, सामर्थ्य, श्रुत, सम्मान उत्थान, आसनप्रदान, अंजलिकरण आदि की प्राप्ति होती है, वह उच्चगोत्रकर्म है। जिस कर्म के उदय से लोक में निन्दित कुल, जाति की प्राप्ति होती हो, उसे नीचगोत्रकर्म कहते हैं । सुघट और मद्यघट बनाने वाले कुम्भकार के समान गोत्रकर्म का स्वभाव है। उच्चगोत्र और नीचगोत्र के क्रमशः आठ-आठ भेद हैं।'
___ अन्तरायकर्म : स्वरूप, प्रकार और लक्षण – जिस कर्म के उदय से जीव को दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य (पराक्रम) में अन्तराय (विघ्न-बाधा) उत्पन्न हो, उसे अन्तरायकर्म कहते हैं। इसके ५ भेद हैं, इनके लक्षण क्रमश: इस प्रकार हैं - १. (क) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. १, पृ. ९८ से १०३ तक
(ख) वही, भा. ५, पृ. २५२ से २५७