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________________ ४०] [तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] दानान्तराय - दान की सामग्री पास में हो, गुणवान् पात्र दान लेने के लिए सामने हो, दान का फल भी ज्ञात हो, दान की इच्छा भी हो, फिर भी जिस कर्म के उदय से जीव दान न दे पाये उसे दानान्तरायकर्म कहते हैं । - लाभान्तराय – दाता उदार हो, देय वस्तु भी विद्यमान हो, लेने वाला भी कुशल एवं गुणवान् पात्र हो, फिर भी जिस कर्म के उदय से उसे इष्ट वस्तु की प्राप्ति न हो, उसे लाभान्तरायकर्म कहते हैं। भोगान्तराय - जो पदार्थ एक बार भोगे जाएँ उन्हें भोग कहते हैं जैसे - भोजन आदि। भोग के विविध साधन होते हुए भी जीव जिस कर्म के उदय से भोग्य वस्तुओं का भोग (सेवन) नहीं कर पाता, उसे 'भोगान्तरायकर्म' कहते हैं। उपभोगान्तराय – जो पदार्थ बार-बार भोगे जाएं, उन्हें उपभोग कहते हैं। जैसे-मकान, वस्त्र, आभूषण आदि। उपभोग की सामग्री होते हुए भी जिस के उदय से जीव उस सामग्री का उपभोग न कर सके, उसे 'उपभोगान्तरायकर्म' कहते हैं। वीर्यान्तराय – वीर्य का अर्थ है पराक्रम, सामर्थ्य, पुरुषार्थ । नीरोग, शक्तिशाली, कार्यक्षम एवं युवावस्था होने पर भी जिस कर्म के उदय से जीव अल्पप्राण, मन्दोत्साह, आलस्य, दौर्बल्य के कारण कार्यविशेष में पराक्रम न कर सके, शक्ति सामर्थ्य का उपयोग न कर सके, उसे वीर्यान्तरायकर्म कहते हैं। ____ इस प्रकार आठों कर्मों के भेद-प्रभेदों का वर्णन सू. १६८७ से १६९६ तक है। कर्मप्रकृतियों की स्थिति की प्ररूपणा १६९७. णाणावरणिजस्स णं भंते! कम्मस्स केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; तिण्णि य बाससहस्साई अबाहा, अबाहूणिया कम्मठिती कम्मणिसेगो। [१६९७ प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म की स्थिति कितने काल की कही है? - [१६९७ उ.] गौतम! (उसकी स्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तीस कोडा - कोडी सागरोपम की है। उसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का हे। सम्पूर्ण कर्मस्थिति (काल) में से अबाधाकाल को कम करने पर (शेष कल) कर्मनिषेक का काल है। १६९८. [१] निद्दापंचयस्स णं भंते! कम्मस्स केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमस्स तिण्णि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; तिण्णि य वाससहस्साइं अबाहा, अबाहूणिया कम्मठिती कम्मणिसेगो। १. (क) वही, भा. ५ पृ. २७५-७६ ___ (ख) कर्मग्रन्थ, भा. १.(मरु. व्या.) पृ. १५१ २. (क) वही, भा. ५, पृ. १५१ (ख) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनीटीका), भा. ५, पृ. २७७-७८
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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