SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [चौतीसवाँ परिचारणापद] [२०१ को शरीर, इन्द्रिय आदि के रूप में परिणत करना। परिचारणा-यथायोग्य शब्दादि विषयों का उपभोग करना। विकुर्वणा-वैक्रियलब्धि के सामर्थ्य से विक्रिया करना। प्रश्न का आशय यह है कि नारक आदि अनन्तराहारक होते हैं ? अर्थात् - क्या उत्पत्तिक्षेत्र में पहुँचते ही समय के व्यवधान के बिना ही वे आहार करते हैं ? तत्पश्चात् क्या उनके शरीर की निर्वर्तना-निष्पत्ति (रचना) होती है ? शरीरनिष्पत्ति के पश्चात् क्या अंग-प्रत्यंगों द्वारा लोमाहार आदि से पुद्गलों का पर्यादान-ग्रहण होता है ? फिर उन गृहीत पुद्गलों का शरीर, इन्द्रिय आदि के रूप में परिणमन होता है ? परिणमन के बाद इन्द्रियां पुष्ट होने पर क्या वे परिचारणा करते हैं ? अर्थात्-यथायोग्य शब्दादि विषयों का उपभोग होता है ? और फिर क्या वे अपनी वैक्रियलब्धि के सामर्थ्य से विक्रिया करते हैं ? उत्तर का सारांश-भगवान् द्वारा इस क्रमबद्ध प्रक्रिया का हाँ में उत्तर दिया गया है। किन्तु वायुकायिक को छोडकर शेष एकेन्द्रियों एवं विकलेन्द्रियों में विकुर्वणा नहीं होती, क्योंकि ये वैक्रियलब्धि प्राप्त नहीं कर सकते। दूसरी विशेष बात यह है कि भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों, इन चारों प्रकार के देवों में विकुर्वणा पहले होती है, परिचारणा बाद में जबकि नारकों आदि शेष जीवों में परिचारणा के पश्चात् विकुर्वणा का क्रम है। देवगणों का स्वभाव ही ऐसा है कि विशिष्ट शब्दादि के उपभोग की अभिलाषा होने पर पहले वे अभीष्ट वैक्रिय रूप बनाते हैं, तत्पश्चात् शब्दादि का उपभोग करते हैं, किन्तु नैरयिक आदि जीव शब्दादि-उपभोग प्राप्त होने पर हर्षातिरेक से विशिष्टतम शब्दादि के उपभोग की अभिलाषा के कारण विक्रिया करते हैं। इस कारण देवों की वक्तव्यता में पहले विक्रिया और बाद में परिचारणा का कथन किया गया है। द्वितीय आहाराभोगताद्वार २०३८. णेरइयाणं भंते ! आहारे किं आभोगणिव्वत्तिए अणाभोगणिव्वत्तिए ? गोयमा! आभोगणिव्वत्तिए वि अणाभोगणिव्वत्तिए वि। [२०३८ प्र.] भगवन् ! नैरयिकों का आहार आभोग-निर्वर्तित होता है या अनाभोगनिर्वर्तित ? [२०३८ उ.] गौतम! उनका आहार आभोग-निर्वर्तित भी होता है और अनाभागनिर्वर्तित भी होता है। २०३९. एवं असुरकुमाराणं जाव वेमाणियाणं। णवरं एगिंदियाणं णो आभोगणिव्वत्तिए, अणाभोगणिव्वत्तिए। [२०३९] इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर यावत् वैमानिकों तक (कहना चाहिए।) विशेष यह है कि एकेन्द्रिय जीवों का आहार आभोगनिर्वर्तित नहीं होता, किन्तु अनाभोगनिर्वर्तित होता है। विवेचन-आभोगनिर्वर्तित और अनाभोगनिवर्तित का स्वरूप-यद्यपि आहारपद (२८ वाँ पद) में इन दोनों प्रकार के आहारों की चर्चा की गई है। वृत्तिकार आचार्य मलयगिरि ने मन:प्रणिधानपूर्वक ग्रहण किये जाने १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ८२१ (ख) प्रज्ञापना . मलयवृत्ति, पत्र ५४४ २. वही, मलयवृत्ति, पत्र ५४४
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy