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________________ तेत्तीसइमं ओहिपयं तेतीसवाँ अवधिपद * यह प्रज्ञापनासूत्र का तेतीसवाँ अवधिपद है। इसमें अवधिज्ञान सम्बन्धी विस्तृत चर्चा है। विभिन्न पहलुओं से अवधिज्ञान की प्ररूपणा की गई है। भारतीय दार्शनिकों और कहीं-कहीं पश्चात्य दार्शनिकों ने अतीन्द्रिय ज्ञान की चर्चा अपने-अपने धर्मग्रन्थों तथा स्वतन्त्ररचित साहित्य में की है। साधारण जनता किसी ज्योतिषी, मंत्रविद्या सिद्ध व्यक्ति अथवा किसी देवी देवोपासक के द्वारा भूत, भविष्य एवं वर्तमान की चर्चा सुन कर आश्चर्यान्वित हो जाती है। उसी को चमत्कार मान कर गतानुगतिक रूप से उलटे-सीधे मार्ग को पकड़कर चल पड़ती है। कभी-कभी लोग ऐसे चमत्कार के चक्कर में पडकर धन और धर्म को खो बैठते हैं । क्षणिक चमत्कार की चकाचौंध में पड कर कई व्यक्ति अपने शील का भी त्याग कर देते हैं और नैतिक पतन के चौराहे पर आकर खडे हो जाते हैं। अत: ऐसा चमत्कार क्या है? वह अवधिज्ञान है या और कोई ज्ञान है? इस शंका के समाधानार्थ जैन तीर्थंकरों ने अवधिज्ञान का यथार्थ स्वरूप बताया है। वह कितने प्रकार का है? कैसे उत्पन्न होता है? क्या वह चला भी जाता है, न्यूनाधिक भी हो जाता है अथवा स्थायी रहता है ? ऐसा ज्ञान किन-किन को होता है? जन्म से ही होता है या विशिष्ट क्षयोपशम से? इन सब पहलुओं पर साधकों को यथार्थ मार्गदर्शन देने तथा साधक कहीं इसके पीछे अपनी साधना न खो बैठे, आम जनता को चमत्कार के चक्कर में डालने के लिए रत्नत्रय की साधना को छोड़कर अन्य मार्गों का अवलम्बन न ले बैठे तथा जनता की चमत्कार की भ्रान्ति दूर करने के लिए अवधिज्ञान की विभिन्न पहलुओं से व्याख्या की है। प्रस्तुत पद में अवधिज्ञान के विषय में ७ द्वारों के माध्यम से विश्लेषण किया गया है। जैसे कि - (१) प्रथम भेदद्वार जिसमें अवधिज्ञान के भेद-प्रभेद का निरूपण किया गया है। (२) द्वितीय विषयद्वार, अवधिज्ञान से प्रकाशित क्षेत्र का विषय, (३) तीसरा संस्थानद्वार, उस क्षेत्र के आकार का वर्णन है, (४) चतुर्थ अवधिज्ञान के बाह्य आभ्यन्तर प्रकार, (५) पंचम देशावधिद्वार, जिसमें सर्वोत्कृष्ट अवधि के साथ सर्वजघन्य और मध्यम अवधि का निरूपण है, (६) छठा, इसमें अवधिज्ञान के क्षय और वृद्धि का निरूपण है। अर्थात् हीयमान और वर्धमान अवधिज्ञान की चर्चा है। (७) सप्तम प्रतिपाति और अप्रतिपातीद्वार, इसमें स्थायी और प्रतिपाती अवधिज्ञज्ञन का निरूपण है। आम जनता आज जिस प्रकार के साधारण भूत-भविष्य-वर्तमानकालिक ज्ञान को चमत्कार मान कर प्रभावित हो जाती है, वह मतिज्ञान का ही विशेष प्रकार है। वह इन्द्रियातीत ज्ञान नहीं है। पूर्वजन्म की बीती बातों को याद करने वाले जातिस्मरण ज्ञान को भी कई लोग अवधिज्ञान की कोटी में मान बैठते हैं, किन्तु वह मतिज्ञान का ही विशेष भेद है। ज्योतिष या मंत्र तंत्रादि से अथवा देवोपासना से होने वाला विशिष्ट ज्ञान भी अवधिज्ञान नहीं है, वह मतिज्ञान का ही विशिष्ट प्रकार है।
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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