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[प्रज्ञापनासूत्र] देवों में उत्पन्न होते हैं, वे असंज्ञी कहलाते हैं। किन्तु नारक या भवनवासी देव नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी नहीं हो सकते, क्योंकि वे केवली नहीं हो सकते । केवली न हो सकने का कारण यह है कि वे चारित्र को अंगीकार नहीं कर सकते। मनुष्यों की वक्तव्यता समुच्चय जीवों के समान समझनी चाहिए। अर्थात् मनुष्य भी समुच्चय जीवों के समान संज्ञी, असंज्ञी तथा नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी भी होते हैं । गर्भज मनुष्य संज्ञी होते हैं, सम्मूछिम मनुष्य असंज्ञी होते हैं तथा केवली नोसंज्ञी-नांअसंज्ञी होते हैं।
पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और वाणव्यन्तर नारकों को समान संज्ञी भी होते हैं, असंज्ञी भी। जो पंचेन्द्रियतिर्यंच सम्मूछिम होते हैं, वे असंज्ञी और जो गर्भज होते हैं, वे संज्ञी होते हैं । जो वाणव्यन्तर असंज्ञियों से उत्पन्न होते हैं, वे असंज्ञी और संज्ञियों से उत्पन्न होते हैं, वे संज्ञी होते हैं। दोनों ही नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी नहीं होते, क्योंकि वे चारित्र अंगीकार नहीं कर सकते । ज्योतिष्क और वैमानिक संज्ञी ही होते हैं, असंज्ञी नहीं, क्योंकि संज्ञी से ही उत्पन्न होते हैं। ये नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी तो हो ही नहीं सकते, क्योंकि वे चारित्र अंगीकार नहीं कर सकते। सिद्ध भगवान् पूर्वोक्त युक्ति से नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी होते हैं।
॥ प्रज्ञापना भगवती का इकतीसवाँ संज्ञिपद समाप्त ॥
१. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. ७, पृ. ३०५