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________________ [इकतीसवाँ आहारपद] [१७३ [१९७२] ज्योतिष्क और वैमानिक संज्ञी होते हैं, किन्तु असंज्ञी नहीं होते, न ही नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी होते हैं। १९७६. सिद्धाणं पुच्छा। गोयमा! णो सण्णी णो असण्णी, णोसण्णि-णोअसण्णी। णेरइय-तिरिय-मणुया य वणयरसुरा य सण्णऽसण्णी य। विगलिंदिया असण्णी, जोतिस-वेमाणिया सण्णी ॥२२०॥ [१९७३ प्र.] भगवन् ! क्या सिद्ध संज्ञी होते हैं ? इत्यादि प्रश्न। [१९७३ उ.] गौतम ! वे न तो संज्ञी हैं, न असंज्ञी हैं, किन्तु नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी हैं। संग्रहणीगाथार्थ –'नारक' तिर्यच्च, मनुष्य वाणव्यन्तर और असुरकुमारादि भवनवासी संज्ञी होते हैं, असंज्ञी भी होते हैं। विकलेन्द्रिय (एवं एकेन्द्रिय) असंज्ञी होते हैं तथा ज्योतिष्क और वैमानिक देवह संज्ञी ही होते हैं ॥२२०॥ ॥ पण्णवणाए भगवतीए एगतीसइमं सण्णिपयं समत्तं॥ विवेचन - संज्ञी, असंज्ञी और नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी का स्वरूप - प्रस्तुत प्रकरण में संज्ञा का अर्थ है - अतीत, अनागत और वर्तमान भावों के स्वभाव का पर्यालोचन - विचारणा। इस प्रकार की संज्ञा वाले जीव संज्ञी कहलाते हैं। अर्थात् जिनमें विशिष्ट स्मरणादि रूप मनोविज्ञान पाया जाए। इस प्रकार के मनोविज्ञान (मस्तिष्कज्ञान) से विकल जीव असंज्ञी कहलाते हैं । अथवा भूत, भविष्य और वर्तमान पदार्थ का जिससे सम्यक् ज्ञान हो, उसे संज्ञा अर्थात्-विशिष्ट मनोवृत्ति कहते हैं। इस प्रकार की संज्ञा जिनमें हो, वे संज्ञी कहलाते हैं । अर्थात् - समनस्क जीव संज्ञी तथा जिनके मनोव्यापार न हो, ऐसे अमनस्क जीव असंज्ञी कहलाते हैं। जो संज्ञी और असंज्ञी, दोनो कोटियों से अतीत हों, ऐसे केवली या सिद्ध नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी कहलाते हैं।' कौन संज्ञी, कौन असंज्ञी तथा कौन संज्ञी-असंज्ञी और क्यों? - एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सम्मूछिम पंचेन्द्रिय जीव असंज्ञी होते हैं, क्योंकि एकेन्द्रियों में मानसिक व्यापार का अभाव होता है और द्वीन्द्रियादि विकलेन्द्रियों एवं सम्मूछिम पंचेन्द्रियों में विशिष्ट मनोवृत्ति का अभाव होता है। केवली मनोद्रव्य से सम्बन्ध होने पर भी अतीत, अनागत और वर्तमानकालिक पदार्थों या भावों के स्वभाव की पर्यालोचनारूप संज्ञा से रहित हैं तथा ज्ञानावरण और दर्शनावरण कमों का सर्वथा क्षय हो जाने के कारण केवलज्ञान-केवलदर्शन से साक्षात् समस्त पदार्थों को जानते देखते हैं । इस कारण केवली न तो संज्ञी हैं और न असंज्ञी हैं, सिद्ध भी संज्ञी नहीं हैं, क्योंकि उनके द्रव्यमन नहीं होता तथा सर्वज्ञ होने के कारण असंज्ञी भी नहीं हैं। अतएव केवली और सिद्ध नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी कहलाते हैं। समुच्चय जीव संज्ञी भी होते हैं, असंज्ञी भी होते हैं और नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी भी होते हैं । नैरयिक तथा दस प्रकार के भवनवासी देव संज्ञी भी होते हैं. असंज्ञी भी। जो नैरयिक या भवनवासी संज्ञी के भव से नरक में या भवनवासी देव में उत्पन्न होते हैं, वे नारक या भवनवासी देव संज्ञी कहलाते हैं। जो असंज्ञी के भव से नरक में या भवनवासी १. (क) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ७१३ (ख) प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, अ.रा.कोष भा. ७, पृ. ३०५
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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