SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७६] [प्रज्ञापनासूत्र] २१६२. वाउक्काइयस्स जहा जीवपदे (सु. २१५९)। णवरं एगदिसिं। [२१६२] वायुकायिक का (वैक्रियसमुद्घात सम्बन्धी) कथन समुच्चय जीवपद के समान (सु. २१५९ के अनुसार) समझना चाहिए। विशेष यह है कि एक ही दिशा में (उक्त क्षेत्र आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है।) २१६३. पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स णिरवसेसं जहा णेरइयस्स (सु. २१६०)। [२१६३] जिस प्रकार (सू. २१६० में) नैरयिक का (वैक्रियसमुद्घात सम्बन्धी कथन) किया गया है, वैसे ही पंचेन्द्रियतिर्यञ्च का समग्र कथन करना चाहिए। २१६४.. मणूस-वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियस्स णिरवसेसं जहा असुरकुमारस्स (सु. २१६१)। __ [२१६४] मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक का (वैक्रियसमुद्घात सम्बन्धी) सप्पूर्ण कथन (सू. २१६१ में उक्त) असुरकुमार के समान कहना चाहिए। विवेचन - वैक्रियसमुद्घात की क्षेत्रस्पर्शना, कालपरिमाण और क्रिया प्ररूपणा - (१) वैक्रियसमुद्घात से समवहत जीव वैक्रिययोग्य शरीर के अन्दर रहे हुए पुद्गलों को बाहर निकालता है (अपने से पृथक् करता है), तब उन पुद्गलों से, शरीर का जितना विस्तार तथा स्थूलत्व है, उतना तथा लम्बाई में जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट संख्यात योजन क्षेत्र एक दिशा में अथवा विदिशा में आपूर्ण एवं व्याप्त (स्पृष्ट) होता है। यहाँ लम्बाई में जो उत्कृष्ट संख्यात योजन-प्रमाण क्षेत्र का व्याप्त होना कहा गया है, वह वायुकायिकों को छोड़कर नारक आदि की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि नारक आदि जब वैक्रियसमुद्घात करते हैं, तब तथाविध प्रयत्न विशेष से संख्यात योजन-प्रमाण आत्मप्रदेशों के दण्ड की रचना करते हैं, असंख्यात योजन-प्रमाण दण्ड की रचना नहीं करते। किन्तु वायुकायिक जीव वैक्रियसमुद्घात के समय जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग का ही दण्ड रचते हैं। इतने प्रमाण वाले दण्ड की रचना करते हुए नारक आदि उतने प्रदेश में तैजसशरीर आदि के पुद्गलों को आत्मप्रदेशों से बाहर निकालते हैं, ऐसी स्थिति में उन पुद्गलों से आपूर्ण और व्याप्त वह क्षेत्र लम्बाई में उत्कृष्ट रूप से संख्यात योजन ही होता है। क्षेत्र का यह प्रमाण केवल वैक्रियसमुद्घात से उत्पन्न प्रयत्न की अपेक्षा से कहा गया है। ___ जब वैक्रियसमुद्घात प्राप्त कोई जीव मारणान्तिकसमुद्घात को प्राप्त होता है और फिर तीव्रतर प्रयत्न के बल से उत्कृष्ट देश में तीन समय के विग्रह से उत्पत्तिस्थान में आता है, उस समय असंख्यात योजन लम्बा क्षेत्र समझना चाहिए। यह असंख्यात योजन-प्रमाण क्षेत्र को आपूर्ण करना मारणान्तिकसमुद्घात-जन्य होने से यहाँ विविक्षित नहीं है। इसी कारण वैक्रियसमुद्घात-जन्य क्षेत्र को संख्यात योजन ही कहा गया है। इसी प्रकार नारक, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च एवं वायुकायिक की अपेक्षा से पूर्वोक्त प्रमाणयुक्त लम्बे क्षेत्र का आपूर्ण होना नियमतः एक दिशा में ही समझना चाहिए। नारक जीव पराधीन और अल्पऋद्धिमान होते हैं। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च भी अल्पऋद्धिमान होते हैं और वायुकायिक जीव विशिष्ट चेतना से विकल होते हैं। ऐसी स्थिति में जब वे वैक्रियसमुद्घात का प्रारम्भ करते हैं, तब स्वभावतः ही आत्मप्रदेशों का दण्ड निकलता है और आत्मप्रदेशों से पृथक् होकर स्वभावतः पुद्गलों का गमन १. प्रज्ञापना. 'मलयवृत्ति, अभि.रा.कोष भा. ७, पृ. ४५६
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy