________________
[छत्तीसवाँ समुद्घातपद]
[२५३ (१) वेदनादि पांच समुद्घात-नारकों के नारकपर्याय में रहते हुए अतीत वेदनासमुद्घात अनन्त हुए हैं, क्योंकि अनेक नारकों को अव्यवहारराशि से निकले अनन्तकाल व्यतीत हो चुका है। इसी प्रकार उनके भावी वेदनासमुद्घात भी अनन्त हैं, क्योंकि वर्तमानकाल में जो नारक हैं, उनमे से बहुत-से नारक अनन्तबार पुन: नरक में उत्पन्न होंगे। नारकों के नारकपर्याय में वेदनासमुद्घात कहे हैं, वैसे ही असुरकुमारादि भवनवासीपर्याय में, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियपर्याय में, विकलेन्द्रियपर्याय में, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याय में, मनुष्यपर्याय में, वाणव्यन्तरपर्याय में ज्योतिष्कपर्याय में और वैमानिकपर्याय में, अर्थात् इन सभी पर्यायों में रहते हुए नारकों के अतीत और अनागत वेदनासमुद्घात अनन्त हैं।
नारकों के समान नारकपर्याय से वैमानिकपर्याय तक में रहे हुए असुरकुमारादि भवनवासियों से लेकर वैमानिकों तक के अतीत-अनागत वेदनासमुद्घात का कथन करना चाहिए। अर्थात् नारकों के समान ही वैमानिकों तक सभी जीवों के स्वस्थान और परस्थान में (चौबीस दण्डकों में) अतीत और अनागत वेदनासमुद्घात कहने चाहिए।
इस प्रकार बहुवचन सम्बन्धी वेदनासमुद्घात के आलापक भी कुल मिलाकर १०५६ होते हैं।
वेदनासमुद्घात से समान अतीत और अनागत कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय और तैजस समुद्घात भी नारकों से लेकर वैमानिकों तक तथा नारकपर्याय से लेकर वैमानिकपर्याय तक चौबीस दण्डकों में कहना चाहिए। इस प्रकार कषायसमुद्घात आदि के भी प्रत्येक के १०५६ आलापक होते हैं।
विशेष सूचना – उपयोग लगाकर अर्थात् ध्यान रखकर जो समुद्घात जिसमें (जहाँ) सम्भव है, उसमें (वहाँ) वे ही अतीत अनागत समुद्घात कहने चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि जहाँ जिसमें जो समुद्घात सम्भव न हों, वहाँ उसमें वे समुद्घात नहीं कहने चाहिए। इसी का स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया - उवउजिऊण णेयव्वं, जस्सऽत्थि वेउव्विय-तेयगा- अर्थात् जिन नारकादि में वैक्रिय और तैजस समुद्घात सम्भव हैं, उन्हीं में उनका कथन करना चाहिए। उनके अतिरिक्त पृथ्वीकायिकादि में नहीं कहना चाहिए, क्योंकि उनमें वे सम्भव नहीं हैं। अतीत और अनागत कषायसमुद्घात एवं मारणान्तिकसमुद्घात का कथन वेदनासमुद्घात की तरह सर्वत्र समानरूप से कहना चाहिए।
- आहारकसमुद्घात - नारकों के नारक-अवस्था में अतीत और अनागत आहारकसमुद्घात नहीं होते हैं। इसका कारण यह है कि आहारकसमुद्घात आहरकशरीर से ही होता है और आहारकशरीर आहारकलब्धि की विद्यमानता में ही होता हैं। आहारकलब्धि चतुर्दशपूर्वधर मुनियों को ही प्राप्त होती है, चौदह पूर्वो का ज्ञान मनुष्यपर्याय में ही हो सकता है, अन्य पर्याय में नहीं। इस कारण मनुष्येतर पर्यायों में सर्वत्र अतीत अनागत आहारकसमुद्घात का अभाव है।
जैसे नारकों के नारक पर्याय में आहारकसमुद्घात सम्भव नहीं है, उसी प्रकार नारकों के असुरकुमारादि भवनवासीपर्याय में, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियपर्याय में, विकलेन्द्रियपर्याय में, तिर्यञ्चपंचेन्द्रियपर्याय में, वाणव्यन्तर१. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका),भा. ५, पृ. ९९२-९९३
(ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि.रा.कोष भा. ७, पृ. ४४४