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________________ २८८] [प्रज्ञापनासूत्र] [२१७५ उ.] गौतम ! वह वैसा करने में समर्थ नहीं होते। वह सर्वप्रथम संज्ञीपंचेन्द्रियपर्याप्तक जघन्ययोग वाले के (मनोयोग से) भी नीचे (कम) असंख्यातगुणहीन मनोयोग का पहले निरोध करते हैं, तदनन्तर द्वीन्द्रियपर्याप्तक जघन्ययोग वाले के (वचनयोग से) भी नीचे (कम) असंख्यातगुणहीन वचनयोग का निरोध करते हैं। तत्पश्चात् अपर्याप्तक सूक्ष्म पनकजीव, जो जघन्ययोग वाला हैं, उसके (काययोग से) भी नीचे (कम) असंख्यातगुणहीन तीसरे काययोग का निरोध करते हैं। (इस -प्रकार) वह (केवली) इस उपाय से सर्वप्रथम मनोयोग का निरोध करते हैं, मनोयोग को रोक कर वचनयोग का निरोध करते हैं, वचनयोगनिरोध के पश्चात् काययोग का भी निरोध कर देते हैं । काययोगनिरोध करके वे (सर्वथा) योगनिरोध कर देते हैं। योगनिरोध करके वे अयोगत्व प्राप्त कर लेते हैं। अयोगत्वप्राप्ति के अनन्तर ही धीरे-से पांच ह्रस्व अक्षरों (अ इ उ ऋ लु) के उच्चारण जितने काल में असंख्यातसामयिक अन्तर्मुहूर्त तक होने वाले शैलेशीकरण को अंगीकार करते हैं। पूर्वरचित गुणश्रेणियों वाले कर्म को उस शैलेशीकाल में असंख्यात कर्मस्कन्धों का क्षय कर डालते हैं । क्षय करके वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र, इन चार (प्रकार के अघाती) कर्मों का एक साथ क्षय कर देते हैं । इन चार कर्मों को युगपत् क्षय करते ही औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर का पूर्णतया सदा के लिए त्याग कर देते हैं। इन शरीरत्रय का पूर्णतः त्याग करके ऋजुश्रेणी को प्राप्त होकर अस्पृशत् गति से एक समय में अविग्रह (बिना मोड़ की गति) से ऊर्ध्वगमन कर साकारोपयोग (ज्ञानोपयोग) से उपयुक्त होकर वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत्त हो जाते हैं तथा सर्वदुःखों का अन्त कर देते हैं। __विवेचन-केवलिसमुद्घात से पूर्व और पश्चात् केवली की प्रवृत्ति-इस प्रकरण में सर्वप्रथम आवर्जीकरण, तत्पश्चात् आठ समय का केवलिसमुद्घात, तदन्तर समुद्घातगत केवली के द्वारा योगत्रय में से काययोगप्रवृत्ति का उल्लेख और उसका क्रम भी बताया गया है। आवर्जीकरण के चार अर्थ यहाँ अभिप्रेत हैं-(१) आत्मा को मोक्ष के अभिमुख करना, (२) मन, वचन, काया के शुभ प्रयोग द्वारा मोक्ष को आवर्जित-अभिमुख करना और (३) आवर्जित अर्थात्-भव्यत्व के कारण मोक्षगमन के प्रति शुभ योगों को व्यापृत-प्रवृत्त करना आवर्जितकरण है तथा (४) आ-मर्यादा में केवली की दृष्टि से शुभयोगों का प्रयोग करना। केवलिसमुद्घात करने से पूर्व आवर्जीकरण किया जाता है, जिसमें असंख्यात समय का अन्तर्मुहूर्त लगता है। आवर्जीकरण के पश्चात् बिना व्यवधान के केवलिसमुद्घात प्रारम्भ कर दिया जात है, जो आठ समय का होता है। मूलपाठ में उसका क्रम दिया गया है। इस प्रक्रिया में प्रारम्भ के चार समयों में आत्मप्रदेशों को फैलाया जाता है, जब कि पिछले चार समयों में उन्हें सिकोड़ा जाता है। कहा भी है-केवली प्रथम समय में ऊपर और नीचे लोकान्त तक तथा विस्तार में अपने देहप्रमाण दण्ड करते हैं, दूसरे में कपाट, तीसरे में मनथान और चौथे समय में लोकपूरण करते हैं फिर प्रतिलोम रूप से संहरण अर्थात् विपरीत क्रम से संकोच करके स्वदेहस्थ हो जाते हैं। ___ (२) समुद्घातकर्ता केवली के द्वारा योगनिरोध आदि की प्रक्रिया से सिद्ध होने का क्रम-सिद्ध होने से पूर्व तक की केवली की चर्चा – दण्ड, कपाट आदि के क्रम से समुद्घात को प्राप्त केवली समुद्घात-अवस्था में सिद्ध (निष्ठितार्थ), बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त (कर्मसंताप से रहित हो जाने के कारण शीतीभूत) और १. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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