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________________ [२८९ . [ छत्तीसवाँ समुद्घातपद] सर्वदुःखरहित नहीं होते। क्योंकि उस समय तक उनके योगों का निरोध नहीं होता और सयोगी को सिद्धि प्राप्त नहीं होती। सिद्धि प्राप्त होने से पूर्व तक वे क्या करते है ? इस विषय में कहते है-समुद्घातगत केवली केवलिसमुद्घात से निवृत्त होते हैं, फिर मनोयोग, वचनयोग और काययोग का प्रयोग करते हैं।' (३) केवलिसमुद्घातगत केवली द्वारा काययोग का प्रयोग-समुद्घातगत केवली औदारिकशरीरकाययोग, औदारिकमिश्रशरीरकाययोग तथा कार्मणशरीरकाययोग का प्रयोग कमशः प्रथम और अष्टम, द्वितीय, षष्ठ और सप्तम, तथा तृतीय, चतुर्थ और पंचम समय में करते है। शेष वैक्रिय-वैक्रियमिश्र, आहारक-आहरकमिश्र काययोग का प्रयोग वे नहीं करते। (४) केवलिसमुद्घात से निवृत्त होने के पश्चात् तीनों योगों का प्रयोग-निवृत्त होने के पश्चात् मनोयोग और उसमें भी सत्यमनोयोग, असत्यामृषामनोयोग का ही प्रयोग करते है, मृषामनोयोग और सत्यमृषामनोयोग का नहीं। तात्पर्य यह है कि जब केवली भगवान् वचनागोचर महिमा से युक्त केवलिसमुद्घात के द्वारा विषमस्थिति वाले नाम, गोत्र ओर वेदनीय कर्म को आयुकर्म के बराबर स्थिति वाला बना कर केवलिसमुद्घात से निवृत्त हो जाते हैं, तब अन्तर्मुहूर्त में ही उन्हें परमपद की प्राप्ति हो जाती है। परन्तु उस अवधि में अनुत्तरोपपातिक देवों द्वारा मन से पूछे हुए प्रश्न का समाधान करने हेतु मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके मनोयोग का प्रयोग करते हैं। वह मनोयोग सत्यमनोयोग या असत्यामृषामनोयोग होता है। समुद्घात से निवृत्त केवली सत्यवचनयोग या असत्यामृषावचनयोग का प्रयोग करते है, किन्तु मृषावचनयोग या सत्यमृषावचनयोग का नहीं। इसी प्रकार समुद्घातनिवृत्त केवली गमनागमनादि क्रियाएँ यतनापूर्वक करते हैं। यहां उल्लंघन और प्रलंघन क्रिया का अर्थ क्रमशः इस प्रकार है-स्वाभाविकचाल से जो डग भरी जाती है, उससे कुछ लम्बी डग भरना उल्लंघन है और अतिविकट चरणन्यास प्रलंघन है। किसी जगह उड़ते-फिरते जीव-जन्तु हों और भूमि उनसे व्याप्त हो, तब उनकी रक्षा के लिए केवली को उल्लंघन और प्रलंघन क्रिया करनी पड़ती है। (५) समग्र योगनिरोध के बिना केवली को भी सिद्धि नहीं-दण्ड, कपाट आदि के क्रम से समुद्घात को प्राप्त केवली समुद्घात से निवृत्त होने पर जब तक सयोगी-अवस्था है, तब तक वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त नहीं हो सकते। शास्त्रकार के अनुसार अन्तर्मुहूर्त काल में वे अयोग-अवस्था को प्राप्त करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाते हैं, किन्तु अन्तर्मुहूर्तकाल तक तो केवली यथायोग्य तीनों योगों के प्रयोग से युक्त होते हैं। सयोगी-अवस्था में केवली सिद्ध-मुक्त नहीं हो सकते, इसके दो कारण हैं-(१) योगत्रय कर्मबन्ध के कारण है तथा (२) सयोगी परमनिर्जरा के कराणभूत शुक्लध्यान का प्रारम्भ नहीं कर सकते। (६) केवली द्वारा योगनिरोध का क्रम-योगनिरोध के क्रम में केवली भगवान् सर्वप्रथम मनोयोगनिरोध करते हैं। पर्याप्तक संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के प्रथम समय में जितने मनोद्रव्य होते हैं और जितना उसका मनोयोग १. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ११४७-११५५ २. प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी टीका, भा. ५, ११५५-११५६ ३. प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग ५, पृ. ११४७-११५५
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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