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[ छत्तीसवाँ समुद्घातपद ]
वि कम्मबीएसु दड्ढेसु पुणरवि जम्मुप्पत्ति न हवति, से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चति ते णं तत्थ सिद्धा भवंति असरीरा जीवघणा दंसण- णाणोवउत्ता निट्ठियट्ठा णीरया णिरे यणा वितिमिरा विसुद्धा सासयमणागयद्धं कालं चिट्ठति त्ति ।
णिच्छिण्णसव्वदुक्खा जाति-जरा-मरण - बंधणविमुक्का । सासयमव्वाबाहं चिट्ठेति सुही सुहं पत्ता ॥ २३१ ॥
[२१७६] वे सिद्ध वहां अशरीरी (शरीररहित) सघन आत्मप्रदेशों वाले दर्शन और ज्ञान में उपयुक्त, कृतार्थ (निष्ठितार्थ), नीरज (कर्मरज से रहित), निष्कम्प, अज्ञानतिमिर से रहित और पूर्ण शुद्ध होते हैं तथा शाश्व भविष्यकाल में रहते हैं ।
[प्र.] भगवन्! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि वे सिद्ध वहां अशरीर सघन आत्मप्रदेशयुक्त, कृतार्थ, . दर्शनज्ञानोपयुक्त, नीरज, निष्कम्प, वितिमिर एवं विशुद्ध होते हैं, तथा शाश्वत अनागतकाल तक रहते है ?
[उ.] गौतम! जैसे अग्नि में जले हुए बीजों से फिर अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, इसी प्रकार सिद्धों के भी कर्मबीजों के जल जाने पर पुनः जन्म से उत्पत्ति नहीं होती। इस कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि सिद्ध अशरीर सघन आत्मप्रदेशों वाले, दर्शन और ज्ञान से उपयुक्त, निष्ठितार्थ, नीरज, निष्कंप अज्ञानांधकार से रहित, पूर्ण विशुद्ध होकर शाश्वत भविष्यकाल तक रहते हैं।
[गाथार्थ - ] सिद्ध भगवान् सब दुःखों से पार हो चुके हैं, वे जन्म, जरा, मृत्यु और बन्धन से विमुक्त हो चुके हैं। सुख को प्राप्त अत्यन्त सुखी वे सिद्ध शाश्वत ओर बाधारहित होकर रहते हैं. ॥ २३१ ॥
॥ पण्णवणाए भगवतीए छत्तीसइमं समुग्घायपदं समत्तं ॥
॥ पण्णवणा समत्ता ॥
विवेचन - सिद्धों का स्वरूप-सिद्ध वहां लोक के अग्रभाग में स्थित रहते हैं । वे अशरीर, अर्थात्औदारिक आदि शरीरों का त्याग कर देते हैं, क्यों कि सिद्धत्व के प्रथम समय में ही वे औदारिक आदि शरीरों का त्याग कर देते हैं। वे जीवघन होते हैं, अर्थात् उनके आत्मप्रदेश सघन हो जाते हैं। बीच में कोई छिद्र नहीं रहता, क्योंकि सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपाती ध्यान के समय में ही उक्त ध्यान के प्रभाव से मुख, उदर आदि छिद्रों (विवरों) को पूरित कर देते हैं । वे दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग में उपयुक्त होते हैं, क्योंकि उपयोग जीव का स्वभाव है। सिद्ध कृतार्थ (कृतकृत्य) होते हैं, नीरज ( वध्यमान कर्मरज से रहित) एवं निष्कम्प होते हैं, क्योंकि कम्पनक्रिया का वहाँ कोई कारण नहीं रहता । वे वितिमर अर्थात् कर्मरूपी या अज्ञानरूपी तिमिर से रहित होते हैं । विशुद्ध अर्थात्विजातीय द्रव्यों के संयोग से रहित - पूर्ण विशुद्ध होते हैं और सदा-सर्वदा सिद्धशिला पर विराजमना रहते है।
सिद्धों के इन विशेषणों के कारण पर विश्लेषण - सिद्धों को अशरीर, नीरज, कृतार्थ, निष्कम्प, वितिमिर एव विशुद्ध आदि कहा गया है। उसका कारण यह है कि अग्नि में जले हुए बीजों से जैसे अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि अग्नि उनके अंकुरोत्पत्ति के सामर्थ्य को नष्ट कर देती है। इसी प्रकार सिद्धों के कर्मरूपी बीज जब केवलज्ञानरूपी अग्नि क द्वारा भस्म हो चुकते हैं, तब उनकी फिर से उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि जन्म का कारण