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________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [९५ [१७८३-१ उ.] गौतम! वह सात, आठ, छह या एक का बन्धक होता है, अथवा अबन्धक होता है। [२] एवं मणूसे वि। अवसेसा णारगादीया सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य। एवं जाव वेमाणिए। [१७८३-२] इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी समझ लेना चाहिए। शेष नारक आदि वैमानिक पर्यन्त सात के बन्धक हैं या आठ के बन्धक हैं। १७८४. [१] जीवा णं भंते! वेदणिजं कम्मं वैदेमाणा कति कम्मपगडीओ बंधंति ? गोयमा! सव्वे वि ताव होजा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य एगविहबंधगा य १ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य एगविहबंधगा य छव्विहबंधगे य २ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य एगविहबंधगा य छव्विहबंधगा य ३ अबंधगेण वि समं दो भंगा भाणियव्वा ५ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य एगविहबंधगा य छव्विहबंधए य अबंधए य चउभंगो ९, एवं एते णव भंगा। [१७८४-१ प्र.] भगवन् ! (बहुत) जीव वेदनीयकर्म का वेदन करते हुए कितनी कर्मप्रकृतियाँ बाँधते हैं ? [१७८४-१ उ.] गौतम! १. सभी जीव सात के, आठ के और एक के बन्धक होते हैं, २. अथवा बहुत जीव सात, आठ या एक के बन्धक होते हैं और एक छह का बन्धक होता है । ३. अथवा बहुत जीव सात, आठ, एक तथा छह के बन्धक होते हैं, ४-५, अबन्धक के साथ भी दो भंग कहने चाहिए, ६-९. अथवा बहुत जीव सात के, आठ के, एक के बन्धक होते हैं तथा कोई एक छह का बन्धक होता है तथा कोई एक अबन्धक भी होता है, यों चार भंग होते हैं। कुल मिलाकर ये नौ भंग हुए। [२] एगिंदियाणं अभंगयं। [१७८४-२] एकेन्द्रिय जीवों को इस विषय में अभंगक जानना चाहिए। [३] णारगादीणं तियभंगो जाव वेमाणियाणं। णवरं मणूसाणं पुच्छा। गोयमा! सव्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य १ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छव्विहबंधए य अट्ठविहबंधए य अबंधए य, एवं एते सत्तावीसं भंगा भाणियव्वा जहा किरियासु पाणाइवायविरतस्स (सु. १६४३)। [१७८४-३] नारक और वैमानिकों तक के तीन-तीन भंग कहने चाहिए। [प्र.] मनुष्यों के विषय में वेदनीयकर्म के वेदन के साथ कर्मप्रकृतियों के बन्ध की पृच्छा है। [उ.] गौतम! १- बहुत-से सात के अथवा एक के बन्धक होते हैं। २-अथवा बहुत-से मनुष्य सात के और एक के बन्धक तथा कोई एक छह का, एक आठ का बन्धक है या फिर अबन्धक होता है। इस प्रकार ये कुल मिलाकर सत्ताईस भंग (सू. १६४३ में उल्लिखित हैं) जैसे-प्राणातिपात-विरत की क्रियाओं के विषय में कहे हैं, उसी प्रकार कहने चाहिए। विवेचन-वेदनीयकर्म के वेदन के क्षणों में अन्य कर्मों का बन्ध-(१) एक जीव और मनुष्य-सात, आठ, छह या एक प्रकृति का बन्धक होता है अथवा अबन्धक होता है। तात्पर्य यह है कि सयोगीकेवली,
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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