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________________ १९८] [प्रज्ञापनासूत्र] * आनत, प्राणत, आरण और अच्युतकल्प में केवल मन-(मन से) परिचारणा होती है। अतः उन-उन देवों की परिचारणा की इच्छा होने पर देवियाँ वहाँ उपस्थित नहीं होती, किन्तु वे उपने स्थान में रह कर ही मनोरम श्रृंगार करती हैं, मनोहर रूप बनाती हैं और वे देव अपने स्थान पर रहते हुए ही मन:सन्तुष्टि प्राप्त कर लेते हैं, साथ ही अपने स्थान में रही हुई वे देवियाँ है भी दिव्य-प्रभाव से अधिकाधिक रूप-लावण्वती बन जाती हैं। प्रस्तुत पद के अन्तिम सप्तम द्वार में पूर्वोक्त सभी परिचारणाओं की दृष्टि से देवों के अल्पबहुत्व की विचारणा की गई है। उसमें उत्तरोत्तर वृद्धिंगत क्रम इस प्रकार है, – (१) सबसे कम अपरिचारक देव हैं, (२) उनसे संख्यातगुणे अधिक मन से परिचारणा करने वाले देव है, (३) उनसे असंख्यातगुणा शब्द-परिचारक देव हैं, (४) उनकी अपेक्षा रूप-परिचारक देव असंख्यातगुणा हैं, (५) उनसे असंख्यातगुणा स्पर्श-परिचारक देव हैं और (६) इन सबसे कायपरिचारक देव असंख्यातगुणे हैं। उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि का विपरीतक्रम परिचारणा में उत्तरोत्तर सुखवृद्धि की दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है। उदाहरणार्थ-सबसे कम सुख कायपरिचारणा में है और फिर उत्तरोत्तर सुखवृद्धि स्पर्श-रूप-शब्द और मन से परिचारणा में है। सबसे अधिक सुख अपरिचारणा वाले देवों में है। वृत्तिकार ने यह रहस्योद्घाटन किया है। १.(क) पुद्गल-संक्रमो दिव्यप्रभावादवसेयः।-प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र५५१ (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, (ग) पण्णवणासुत्तं भा. २ (प्रस्तावना-परिशिष्ट) पृ. १४८ २. (क) पण्णवणासुत्तं भा. २ (प्रस्तावना-परिशिष्ट) पृ.१४ (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ८७१
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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