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________________ २१०] [प्रज्ञापनासूत्र] देव उन अप्सराओं के साथ शब्दपरिचारणा करते हैं। शेष कथन उसी प्रकार (पूर्ववत्) यावत् बार-बार परिणत होते [६] तत्थ णं जे ते मणपरियारगा देवा तेसिं इच्छामणे समुप्पजइ – इच्छामो णं अच्छाराहिं सद्धिं मणपरियारणं करेत्तए, तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकए समाणे खिप्पामेव ताओ अच्छराओ तत्थगताओ चेव समाणीओ अणुत्तराई उच्चावयाइं मणाई संपहारेमाणीओ संपहारेमाणीओ चिट्ठति, तए णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं मणपरियारणं करेंति, सेसं णिरवसेसं तं चेव जाव भुजो २ परिणमंति। [२०५२-६] उनमें जो मन:परिचारक देव होते हैं, उनके मन में इच्छा उत्पन्न होती है – हम अप्सराओं के साथ मन से परिचारणा करना चाहते हैं। तत्पश्चात् उन देवों के द्वारा मन में इस प्रकार अभिलाषा करने पर वे अप्सराएँ शीघ्र ही, वहीं (अपने स्थान पर) रही हुई उत्कृष्ट उच्च-नीच मन को धारण करती हुई रहती हैं। तत्पश्चात् वे देव उन अप्सराओं के साथ मन से परिचारणा करते हैं। शेष सब कथन पूर्ववत् यावत् बार-बार परिणत होते हैं, (यहाँ तक कहना चाहिए। सप्तम अल्पबहुत्वद्वार २०५३. एतेसि णं भंते! देवाणं कायपरियारगाणं जाव मणपरियारगाणं अपरियारगाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा ४? गोयमा ! सव्वत्थोवा देवा अपरियारगा, मणपरियारगा संखेजगुणा, सद्दपरियारगा असंखेजगुणा, रूवपरियारगा असंखेजगुणा, फासपरियारगा असंखेजगुणा, कायपरियारगा असंखेजगुणा। . [२०५३ प्र.] भगवन् ! इन कायपरिचारक यावत् मन:परिचारक और अपरिचारक देवों में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? [२०५३ उ.] गौतम! सबसे कम अपरिचारक देव हैं, उनसे संख्यातगुणे मनःपरिचारक देव हैं, उनसे असंख्यातगुणे शब्दपरिचारकदेव हैं, उनसे रूपपारिचारक देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे स्पर्शपरिचारक देव असंख्यातगुणे हैं और उनसे कायपरिचारक देव असंख्यातगुणे हैं। ॥ पण्णवणाए भगवतीए चउतीसइमं पवियारणापयं समत्तं ॥ विवेचन - विविध पहलुओं से देव-परिचारणा पर विचार – प्रस्तुत 'परिचारणा' नामक छठे द्वार में मुख्यतया चार पहलुओं से देवों की परिचारणा पर विचार किया गया है - (१) देव देवियों सहित ही परिचार करते हैं या देवियों के बिना भी ? तथा क्या देव अपरिचारक भी होते हैं ? (२)परिचारणा के पाँच प्रकार, कौन देव किस प्रकार की परिचारणा करते हैं और कौन देव अपरिचारक हैं ? (३)कायपरिचारणा से लेकर मनःपरिचारणा तक का स्वरूप, तरीका और परिणाम। और अन्त में (४) परिचारक-अपरिचारक देवों का अल्पबहुत्व। १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ८४५ से ८५३ (ख) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ टिप्पण), पृ. ४२१ से ४४३ तक
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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