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________________ [चौतीसवाँ परिचारणापद] [२११ निष्कर्ष – (१) कोई भी देव ऐसा नहीं होता, जो देवियों के साथ रहते हुए परिचाररहित हो, अपितु कतिपय देव देवियों सहित परिचार वाले होते हैं, कई देव-देवियों के बिना भी परिचारवाले होते हैं। कुछ देव ऐसे होते हैं, जो देवियों और परिचार, दोनों से रहित होते हैं। (२) भवनवासी वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशानकल्प के वैमानिकदेव सदेवीक भी होते हैं और परिचारणा से युक्त भी। अर्थात् देवियाँ वहाँ जन्म लेती हैं। अत: वे देव उन देवियों के साथ रहते हैं और परिचार भी करते हैं। किन्तु सनत्कुमार से लेकर अच्युतकल्प तक के वैमानिक देव देवियों के साथ नहीं रहते, क्योंकि इन देवलोकों में देवियों का जन्म नहीं होता। फिर भी वे परिचारणासहित होते हैं। ये देव सौधर्म और ईशानकल्प में उत्पन्न देवियों के साथ स्पर्श, रूप, शब्द और मन से परिचार करते हैं। भवनवासी से लेकर ईशानकल्प तक के देव शरीर से परिचारणा करते हैं, सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प के देव स्पर्श से, ब्रह्मलोक और लान्तक कल्प के देव रूप से, महाशुक्र और सहस्रारकल्प के देव शब्द से और आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्प के देव मन से परिचारणा करते हैं। नौ ग्रैवेयक और पांच अनुत्तरविमानवासी देव देवियों और परिचारणा दोनों से रहित होते हैं। उनका पुरुषवेद अतीव मन्द होता है। अतः वे मन से भी परिचारणा नहीं करते। इस पाठ से यह स्पष्ट है कि मैथुनसेवन केवल कायिक ही नहीं होता, वह स्पर्श, रूप, शब्द और मन से भी होता है। कायपरिचारक देव काय से परिचारणा मनुष्य नर-नारी की तरह करते हैं, असुरकुमारों से लेकर ईशानकल्प तक के देव संक्लिष्ट उदयवाले पुरुषवेद के वशीभूत होकर मनुष्यों के समान वैषयिक सुख में निमग्न होते हैं और उसी से उन्हें तृप्ति का अनुभव होता है अन्यथा तृप्ति-सन्तुष्टि नहीं होती। स्पर्शपरिचारक देव भोग की अभिलाषा से अपनी समीपवर्तिनी देवियों के स्तन, मुख, नितम्ब आदि का स्पर्श करते हैं और इसी स्पर्शमात्र से उन्हें कायपरिचारणा की अपेक्षा अनन्तगुणित सुख एवं वेदोपशान्ति का अनुभव होता है। रूपपरिचारक देव देवियों के सौन्दर्य, कमनीय एवं काम के आधारभूत दिव्य-मादकरूप को देखने मात्र से कायपरिचारणा की अपेक्षा अनन्तगुणित वैषयिक सखानभव करते हैं। इतने से ही उनका वेद (काम) उपशान्त हो जाता है। शब्दपरिचारक देवों का विषयभोग शब्द से ही होता है। वे अपनी प्रिय देवांगनाओं के गीत, हास्य, भावभंगिमायुक्त मधुर स्वर, आलाप एवं नूपुरों आदि की ध्वनि के श्रवणमात्र से कायिकपरिचारणा की अपेक्षा अनन्तगुणित सुखानुभव करते हैं, उसी से उनका वेद उपशान्त हो जाता है। मनःपरिचारक देवों का विषयभोग मन से ही हो जाता हैं। वे कामविकार उत्पन्न होने पर मन से अपनी मनोनीत देवांगनाओं की अभिलाषा करते हैं और उसी से उनकी तृप्ति हो जाती है। कायिकविषयभोग की अपेक्षा उन्हें मानसिकविषयभोग से अनन्तगुणा सुख प्राप्त होता है, वेद भी उपशान्त हो जात है। अप्रवीचारक नौ ग्रैवेयकों तथा पांच अनुत्तरविमानों के देव अपरिचारक होते हैं। उनका मोहोदय या वेदोदय अत्यन्त मन्द होता है। अतः वे अपने प्रशमसुख में निमग्न रहते हैं। परन्तु चारित्र-परिणाम का अभाव होने से वे ब्रह्मचारी नहीं कहे जा सकते। दो प्रश्नः (१) किस प्रकार की तृप्ति ? – देवों को अपने-अपने तथाकथित विषयभोग से उसी प्रकार की १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४५९
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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