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[प्रज्ञापनासूत्र] तृप्ति एवं भोगाभिलाषा निवृत्त हो जाती है, जिस प्रकार शीतपुद्गल अपने सम्पर्क से शान्तस्वभाव वाले प्राणी के लिए अत्यन्त सुखदायक होते हैं अथवा उष्णपुद्गल उष्णस्वभाव वाले प्राणी को अत्यन्त सुखशान्ति के कारण होते हैं। इसी प्रकार की तृप्ति, सुखानुभूति अथवा विषयाभिलाषानिवृत्ति हो जाती है। आशय यह है कि उन-उन देवियों के शरीर, स्पर्श, रूप, शब्द और मनोनीत कल्पना का सम्पर्क पाकर आनन्ददायक होते हैं।
(२) कायिक मैथुनसेवन से मनुष्यों की तरह शुक्रपुद्गलों का क्षरण होता है, परन्तु वह वैक्रियशरीरवर्ती होने से गर्भाधान का कारण नहीं होता, किन्तु देवियों के शरीर में उन शुक्रपुद्गलों के संक्रमण से सुख उत्पन्न होता है तथा वे शुक्रपुद्गल देवियों के लिए पांचों इन्द्रियों के रूप में तथा इष्ट, कान्त, मनोज्ञ, मनोहर रूप में तथा सौभाग्य, रूप, यौवन, लावण्य के रूप में बारबार परिणत होते हैं।
कठिन शब्दार्थ - इच्छामणे - दो अर्थ – (१) इच्छाप्रधान मन, (२) मन में इच्छा या अभिलाषा । मणसीकए समाणे - मन करने पर। उच्चावयाई: - दो अर्थ - (१) उच्च तथा नीच - ऊबड़-खाबड़, (२) न्यूनाधिक - विविध । उवदंसेमाणीओ – दिखलाती हुई। समुदीरेमाणीओ – उच्चारण करती हुई। सिंगाराई - शृंगारयुक्त । तत्थगताओ चेव समाणीओ - अपने-अपने विमानों में रही हुई। अणुत्तराई उच्चावयाइं मणाई संपहारेमाणीओ चिट्ठति - उत्कट सन्तोष उत्पन्न करने वाले एवं विषय में आसक्त, अश्लील कामोद्दीपक मन करती हुई।
॥ प्रज्ञापना भगवती का चौतीसवाँ पद सम्पूर्ण॥
१. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. ५, पृ. ८४५ से ८५३
(ख) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ टिप्पण), पृ. ४२१ से ४३ तक २. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४५९