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________________ [१०५ [ प्रज्ञापनासूत्र ] हुआ) आहार है, उस आहार की अभिलाषा असंख्यात - समय के अन्तर्मुहूर्त में उत्पन्न होती है । १७९७. णेरड्या णं भंते! किमाहारमाहारेंति ? गोयमा ! दव्वओ अणतपदेसियाई, खेत्तओ असंखेज्जपदेसोगाढाई, कालतो अण्णतरठितियाई, भावओ वण्णमंताई गंधमंताइं रसमंताई फासमंताई । [ १७९७ प्र.] भगवन् ! नैरयिक कौन-सा आहार ग्रहण करते हैं ? [ १७९७ उ.] गौतम ! वे द्रव्यतः - अनन्तप्रदेशी (पुद्गलों का) आहार ग्रहण करते हैं, क्षेत्रतः असंख्यातप्रदेशों में अवगाढ (रहे हुए), कालतः किसी भी ( अन्यतर) कालस्थिति वाले और भावतः वर्णवान्, गन्धवान्, रसवान् और स्पर्शवान् पुद्गलों का आहर करते हैं। १७९८. [ १ ] जाई भावओ वण्णमंताई आहारेंति ताइं किं एगवण्णाई आहारेंति जाव किं पंचवण्णाई आहारेंति ? गोयमा! ठाणमग्गणं पडुच्च एगवण्णाई वि आहारेंति जाव पंचवण्णाई पि आहारेंति, विहाणमग्गणं पडुच्च कालवण्णाई पि आहारेंति जाव सुक्किलाई पि आहारेंति । [१७९८-१ प्र.] भगवन्! भाव से (नैरयिक) वर्ण वाले जिन पुद्गलों का आहार करते हैं, क्या वे एक वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं यावत् क्या वे पंच वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं ? [१७९८ -१ उ.] गौतम ! वे स्थानमार्गणा (सामान्य) की अपेक्षा से एक वर्ण वाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं यावत् पांच वर्णवाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं तथा विधान (भेद) मार्गणा की अपेक्षा से काले वर्ण वाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं यावत् शुक्ल (श्वेत) वर्ण वाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं । [२] जाई वण्णओ कालवण्णाई आहारेंति ताई कि एगगुणकालाई आहारेंति जाव दसगुणकालाई आहारेंति संखेज्जगुणकालाई असंखेज्जगुणकालाई अनंतगुणकालाई आहारेंति ? गोयमा! एगगुणकालाई पि आहारेंति जाव अनंतगुणकालाई पि आहारेंति । एवं जाव सुक्किलाई पि। [१७९८-२ प्र.] भगवन्! वे वर्ण से जिन काले वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं, क्या वे एक गुण काले पुद्गलों का आहार करते हैं यावत् दस गुण काले, संख्यातगुण काले, असंख्यातगुण काले या अनन्तगुण काले वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते है ? [ १७९८-२ उ.] गौतम ! वे एक गुण काले पुद्गलों का भी आहार करते हैं यावत् अनन्तगुण काले पुद्गलों का भी आहार करते हैं। इसी प्रकार (रक्तवर्ण से लेकर) यावत् शुक्लवर्ण के विषय में पूर्वोक्त प्रश्न और समाधान जानना चाहिए। १७९९. एवं गंधओ वि रसओ वि । [१७९९] इसी प्रकार गन्ध और रस की अपेक्षा से भी पूर्ववत् आलापक कहने चाहिए । १८००. [ १ ] जाई भावओ फासमंताई ताई णो एगफासाई आहारेंति, णो दुफासाई आहारेंति, णो
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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