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[ अट्ठाईसवाँ आहारपद ]
[१७९४-१ प्र.] भगवन् ! क्या नैरचिक सचित्ताहारी होते हैं, अचित्ताहारी होते हैं या मिश्राहारी होते हैं ? [ १७९४ - १ उ.] गौतम! नैरयिक सचित्ताहारी नहीं होते और न मिश्राहारी (सचित्त - अचित्ताहारी) होते हैं, किन्तु अचित्ताहारी होते हैं ।
[२] एवं असुरकुमारा जाव वेमाणिया ।
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[१७९४-२] इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर वैमानिकों पर्यन्त ( जानना चाहिए।)
[३] ओरालियसरीरी जाव मणूसा सचित्ताहारा वि अचित्ताहारा वि मीसाहारा वि ।
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[१७९४-३] औदारिकशरीरी यावत् मनुष्य सचित्ताहारी भी हैं, अचित्ताहारी भी हैं और मिश्राहारी भी हैं । विवेचन – सचित्ताहारी, अचित्ताहारी या मिश्राहारी ? • समस्त सांसारिक जीव भवधारणीय शरीर की अपेक्षा से दो भागों में विभक्त हैं - (१) वैक्रियशरीरी और (२) औदारिकशरीरी । वैक्रियशरीरधारी जो नारक, देव आदि जीव हैं, वे वैक्रियशरीर-परिपोषण योग्य पुद्गलों का आहार करते हैं और वे पुद्गल अचित्त ही होते हैं, सचित्त (जीवपरिगृहीत) और मिश्र नहीं। इसलिए प्रस्तुत में नैरयिक, असुरकुमारादि भवनवासीदेव, वाणव्यन्तरदेव, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों (जो कि वैक्रियशरीरी हैं) को एकान्ततः अचित्ताहारी बताया है तथा इनके अतिरिक्त एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त तिर्यञ्च और मनुष्य जो औदारिकशरीरधारी हैं, वें औदारिकशरीर के परिपोषणयोग्य पुद्गलों का आहार करते हैं, जो तीनों ही प्रकार के होते हैं। इसलिए इन्हें सचित्ताहारी, अचित्ताहारी और मिश्राहारी बताया गया है।
नैरयिकों में आहारार्थी आदि द्वितीय से अष्टमद्वार पर्यन्त
१७९५. णेरइया णं भंते! आहारट्ठी ?
हंता गोयमा! आहारट्ठी ।
[१७९५ प्र.] भगवन्! क्या नैरयिक आहारार्थी (आहाराभिलाषी) होते हैं ?
[ १७९५ उ.] हाँ, गौतम ! वे आहारार्थी होते हैं ।
१७९६. णेरइयाणं भंते! केवतिकालस्स आहारट्ठे समुप्पज्जति ?
गोयमा! णेरइयाणं आहारे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा • भोगणिव्वत्तिए य अणाभोगणिव्वत्तिए य । तत्थ णं जे से अणाभोगणिव्वत्तिए से णं अणुसमयविरहिए आहारट्ठे समुप्पज्जति । तत्थ णं जे से आभोगणिव्वत्तिए से णं असंखेज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए आहारट्ठे समुप्पज्जति ।
[ १७९६ प्र.] भगवन्! नैरयिकों को कितने काल के पश्चात् आहार की इच्छा (आहारार्थ) समुत्पन्न होती है ? [१७९६ उ.] गौतम! नैरयिकों का आहार दो प्रकार का कहा गया है। यथा - (१) आभोगनिर्वर्तित, (उपयोगपूर्वक किया गया) और (२) अनाभोगनिर्वर्तित। उनमें जो अनाभोगनिर्वर्तित (बिना उपयोग के किया हुआ) है, उस आहार की अभिलाषा प्रति समय निरन्तर उत्पन्न होती रहती है, किन्तु जो आभोगनिर्वर्तित (उपयोगपूर्वक किया १. प्रज्ञापना, मलयवृत्ति पत्र अभि. रा. कोष, भा. २, पृ. ५००