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अट्ठावीसइमं आहारपयं अट्ठाईसवाँ आहारपद
पढमो उद्देसओ : प्रथम उद्देशक
प्रथम उद्देशक में उल्लिखित ग्यारह द्वार
१७९३. सच्चित्ता १ ऽऽहारट्ठी २ केवति ३ किं वा वि ४ सव्वओ चेव ५ ।
कतिभागं ६ सव्वे खलु ७ परिणामे चेव ८ बोद्धव्वे ॥ २१७ ॥ एगिंदिसरीरादी ९ लोमाहारे १० तहेव मणभक्खी ११ ।
एतेसिं तु पयाणं विभावणा होइ कायव्वा ॥ २१८ ॥
[१७९३ गाथार्थ – ] [ प्रथम उद्देशक में] इन (निम्नोक्त) ग्यारह पदों पर विस्तृत रूप से विचारणा करनी है - (१). सचित्ताहार, (२) आहारार्थी, (३) कितने काल से (आहारार्थ) ?, (४) क्या आहार (करते हैं ?), (५) सब प्रदेशों से (सर्वतः), (६) कितना भाग ?, (७) (क्या) सभी आहार (करते हैं ?) और (८) (सर्वतः ) परिणत ( करते हैं ?) (९) एकेन्द्रियशरीरादि, (१०) लोमाहार एवं (११) मनोभक्षी ( ये ग्यारह द्वार जानने चाहिए ) | ॥२१७--२१८ ॥
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विवेचन प्रथम उद्देशक में आहार सम्बन्धी ग्यारह द्वार - प्रस्तुत दो संग्रहणी गाथाओं द्वारा प्रथम उद्देशक में प्रतिपाद्य ग्यारह द्वारों (पदों) का उल्लेख किया गया है। प्रथमद्वार - इसमें नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के विषय में प्रश्नोत्तर हैं कि वे सचित्ताहारी होते हैं, अचित्ताहारी होते हैं या मिश्राहारी ?, द्वितीयद्वार से अष्टमद्वार तक - क्रमश: (२) नारकादि जीव आहारार्थी हैं या नहीं ?, (३) कितने काल में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है ?, (४) किस वस्तु का आहार करते हैं ?, (५) क्या वे सर्वतः (सब प्रदेशों से) आहार करते हैं ?, सर्वतः उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं, क्या वे बार-बार आहार करते हैं ? बार-बार उसे परिणत करते हैं ? इत्यादि, (६) कितने भाग का आहार या आस्वादन करते हैं ?, (७) क्या सभी गृहीत पुद्गलों का आहार करते हैं ?, (८) गृहीत आहार्य पुद्गलों को किस-किस रूप में बार-बार परिणत करते हैं ? (९) क्या वे एकेन्द्रियादि के शरीरों का आहर करते हैं ?, (१०) वे ओजाहारी होते हैं या मनोभक्षी ? प्रथम उद्देशक में इन ग्यारह द्वारों का प्रतिपादन किया गया है।
चौबीस दण्डकों में प्रथम सचित्ताहारद्वार
१७९४. [ १ ] णेरड्या णं भंते! कि सचित्ताहारा अचित्ताहारा मीसाहार ?
गोयमा ! णो सचित्ताहार, अचित्ताहारा, णो मीसाहारा ।
१.(क) प्रज्ञापना, (मलय. वृत्ति) अभि. रा. को. भा. २, पृ. ५००
(ख) प्रज्ञापना सूत्र (प्रमेय बोधिनी टीका), भा. ५, पृ. ५४१, ५६३, ६१३