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________________ ११२] [अट्ठाईसवाँ आहारपद] [१८११ उ.] गौतम! जिस प्रकार (सू. १८०४ में) नैरयिकों की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में कहना चाहिए। १८१२. पुढविक्काइया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति ते णं तेसिं पोग्गला कीसत्तए भुजो भुजो परिणमंति ? गोयमा! फासेंदियवेमायत्ताए भुजो भुजो परिणमंति। [१८१२ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल (पृथ्वीकायिकों में) किस रूप में पुनःपुनः परिणत होते हैं ? [१८१२ उ.] गौतम! जिस प्रकार (वे पुद्गल) स्पर्शेन्द्रिय की विषम मात्रा के रूप में (अर्थात् इष्ट एवं अनिष्ट रूप में) बार-बार परिणत होते हैं। १८१३. एवं जाव वणस्सइकाइयाणं। [१८१३] इसी प्रकार (पृथ्वीकायिकों) की वक्तव्यता के समान (अप्कायिकों से लेकर) यावत् वनस्पतिकायिकों की (वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए।) विवेचन - पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रियों की आहार-सम्बन्धी विशेषता - पृथ्वीकायिक प्रतिसमय अविरतरूप से आहार करते हैं । वे निर्व्याघात की अपेक्षा छहों दिशाओं से और व्याघात की अपेक्षा कदाचित् तीन, चार या पांच दिशाओं से आहार लेते हैं। इनमें एकान्त शुभानुभाव या अशुभानुभावरूप बाहुल्य नहीं पाया जाता। पृथ्वीकायिकों के द्वारा आहार के रूप में गृहीत पदगल उनमें स्पर्शेन्द्रिय की विषममात्रा के रूप में परिणत होते हैं। इसका आशय यह है कि नारकों के समान एकान्त अशुभरूप में तथा देवों के समान एकान्त शुभरूप में उनका परिणमन नहीं होता, किन्तु बार-बार कभी इष्ट और कभी अनिष्ट रूप में उनका परिणमन होता है। यही नारकों से पृथ्वीकायिकों की विशेषता है। शेष सब कथन नारकों के समान समझ लेना चाहिए। पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक आहारसम्बन्धी वक्तव्यता एक सी है। विकलेन्द्रियों में आहारार्थी आदि सात द्वार ( २-८) १८१४. बेइंदिया णं भंते! आहारट्ठी ? हंता गोयमा! आहारट्ठी। [१८१४ प्र.] भगवन् ! क्या द्वीन्द्रिय जीव आहारार्थी होते हैं ? [१८१४ उ.] हाँ, गौतम! वे आहारार्थी होते हैं। १८१५. बेइंदियाणं भंते! केवतिकालस्स आहारट्टे समुप्पज्जति ? जहा णेरइयाणं (सु. १७९३) १. (क) पण्णवणासुतं, भा. १ (मू. पा. टि.) पृ. ३९४-३९५ (ख) प्रज्ञापनासूत्र (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ.५६३-५६६
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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