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________________ [प्रज्ञापनासूत्र] [१११ [१८०८ उ.] गौतम! उन्हें प्रतिसमय बिना विरह के आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है। १८०९. पुढविक्काइया णं भंते! किमाहारमाहारेंति ? एवं जहा णेरइयाणं (सु. १७९७-१८००) जाव ताई भंते! कति दिसिं आहारंति ? गोयमा! णिव्वाघाएणं छदिसिं, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसिं, णवरं ओसण्णकारणं ण भवति, वण्णतो काल-णील-लोहिय-हालिद्द-सुकिलाई, गंधओ सुब्भिगंध दुब्भिगंधाई, रसओ तित्त-कड्य-कसाय-अंबिल-महराइं, फासतो कक्खड-मउय-गरुअ-लहुय-सीय-उसिण-णिद्धलुक्खाइं, तेसिं पोराणे वण्णगुणे सेसं जहा णेरइयाणं (सु. १८०१-२) जाव आहच्च णीससंति। [१८०९ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव किस वस्तु का आहार करते हैं ? [१८०९ उ.] गौतम! इस विषय का कथन (सू. १७९७-१८०० में उक्त) नैरयिकों के कथन के समान जानना चाहिए; यावत् - [प्र.] पृथ्वीकायिक जीव कितनी दिशाओं से आहार करते है? [उ.] गौतम! यदि व्याघात (रुकावट) न हो तो वे (नियम से) छहों दिशाओं (में स्थित और छहों दिशाओं) से (आगत द्रव्यों का) आहार करते हैं। यदि व्याघात हो तो कदाचित् तीन दिशाओं से, कदाचित् चार दिशओं से और कदाचित् पांच दिशाओं से आगत द्रव्यों का आहार करते हैं । विशेष यह है कि (पृथ्वीकायिकों के सम्बन्ध में) बाहुल्य कारण नहीं कहा जाता। (पृथ्वीकायिक जीव) वर्ण से – कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत, गन्ध से – सुगन्ध और दुर्गन्ध वाले, रस से - तिक्त, कटुक, कषाय, अम्ल और मधुर रस वाले और स्पर्श से – कर्कक्ष, मृदु, गुरु (भारी), लघु (हल्का), शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श वाले (द्रव्यों का आहार करते हैं) तथा उन (आहार किये जाने वाले पुद्गलद्रव्यों) के पुराने वर्ण आदि गुण नष्ट हो जाते हैं, इत्यादि शेष सब कथन (सू. १८०१-२ में उक्त) नारकों के कथन के समान यावत् कदाचित् उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं; (यहाँ तक जानना चाहिए।) १८१०. पुढविक्काइया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति तेसि णं भंते! पोग्गलणं सेयालंसि कतिभागं आहारेंति कतिभागं आसाएंति ! गोयमा! असंखेजइभागं आहारेंति अणंतभागं आसाएंति। [१८१० प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं,उन पुद्गलों में से भविष्यकाल में कितने भाग का आहार करते हैं और कितने भाग का आस्वादन करते हैं? [१८१० उ.] गौतम! (आहार के रूप में गृहीत पुद्गलों के) असंख्यातवें भाग का आहर करते हैं और अनन्तवें भाग का आस्वादन करते हैं। १८११. पुढविक्काइया णं भंते! जे पुग्गले आहारत्ताए गिण्हंति ते किं सव्वे आहारेंति णो सव्वे आहारेंति ? जहेव णेरइया (सु. १८०४) तहेव। [१८११ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या उन सभी का आहार करते हैं अथवा उन सबका आहार नहीं करते हैं ? (अर्थात् सबके एक भाग का आहार करते हैं ?)
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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