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________________ [ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद ] १७०९. रइयाउअ - देवाउअ - णिरयगतिणाम- देवगतिणाम - वेडव्वियसरीरणाम- आहारग- सरीरणामरइयाणुपुव्विणाम- देवाणुपुव्विणाम- तित्थगरणाम एयाणि पयाणि ण बंधंति । ६४ ] [१७०९] नरकायु, देवायु, नरकगतिनाम, देवगतिनाम, वैक्रियंशरीरनाम, आहारकशरीरनाम, नरकानुपूर्वीनाम, देवानुपूर्वीनाम, तीर्थकरनाम, इन नौ पदों को एकेन्द्रिय जीव नहीं बांधते । १७१०. तिरिक्खजोणियाउअस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी सत्तहिं वाससहस्सेहि वाससहस्सतिभागेण य अहियं बंधंति । एवं मणुस्साउअस्स वि। [१७१०] एकेन्द्रिय जीव तिर्यञ्चायु का जघन्य अन्तमुहूर्त का, उत्कृष्ट सात हजार तथा एक हजार वर्ष का तृतीय भाग अधिक करोड पूर्व का बन्ध करते हैं । मनुष्यायु का बन्ध भी इसी प्रकार समझना चाहिए । १७११. [ १ ] तिरियगतिणामए जहा णपुंसगवेदस्स (सु. १७०८ [८] ) । मणुयगतिणामए जहा सातावेदणिज्जस्स (सु. १७०७ [१] ) । [१७११-१] तिर्यञ्चगतिनाम का बन्धकाल (सू. १७०८-८ में उक्त) नपुंसकवेद के समान है तथा मनुष्यगतिनाम का बन्धकाल (सू. १७०७ - १ में उक्त) सातावेदनीय के समान है। [ २ ] एगिंदियजाइणामए पंचेंदियजाइणामए य जहा णपुंसगवेदस्स । बेइंदिय-तेइंदिय-जातिणामए जहण्णेणं सागरोवमस्स णव पणतीसतिभागे पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुणे बंधंति । चडरिंदियनामए वि जहणणेणं सागरोवमस्स णव पणतीसतिभागे पलिओवमस्स असंखिज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति । [१७११-२] एकेन्द्रियजाति - नाम और पंचेन्द्रियजाति - नाम का बन्धकाल नपुंसकवेद के समान जानना चाहिए तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति-नाम का बंध जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का ९/३५ भाग बांधते हैं और उत्कृष्ट वही ९/३५ भाग पूरा बांधते हैं। १७१२. एवं जत्थ जहण्णगं दो सत्तभागा तिण्णि वा चत्तारि वा सत्तभागा अट्ठवीसतिभागा० भवंति तत्थ णं जहण्णेणं तें चेव पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊण्गा भाणियव्वा, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुणे बंधंति । जत्थ णं जहणेणं एगो वा दिवड्ढो वा सत्तभागो तत्थ जहण्णेणं तं चैव भाणियव्वं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति । [१७१२] जहाँ जघन्यतः २/७ भाग, ३/७ भाग या ४/७ भाग अथवा ५/२८, ९/२८ एवं ७/२८ भाग कहे हैं, वहाँ वे ही भाग जघन्य रूप से पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम कहने चाहिए और उत्कृष्ट रूप में वे ही भाग परिपूर्ण समझने चाहिए। इसी प्रकार जहाँ जघन्य रूप से १/७ या १" भाग है, वहाँ जघन्य रूप से वही भाग कहना
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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