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________________ [ ६५ [ प्रज्ञापनासूत्र ] चाहिए और उत्कृष्ट रूप से वही भाग परिपूर्ण कहना चाहिए । १७१३. जसोकित्ति - उच्चागोयाणं जहण्णेणं सागरोवमस्स एगं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति । [१७१३] यश: कीर्तिनाम और उच्चगोत्र का एकेन्द्रिय जीव जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के १/७ भाग का एवं उत्कृष्टतः सागरोपम के पूर्ण १/७ भाग का बन्ध करते हैं। १७१४. अंतराइयस्स णं भंते! ० पुच्छा । गोयमा ! जहा णाणावरणिज्जस्स जाव उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति । [१७१४-१ प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव अन्तरायकर्म का बन्ध कितने काल का करते हैं ? [१७१४-१ उ.] गौतम ! इनका अन्तरायकर्म का जघन्य और उत्कृष्ट बन्धकाल ज्ञानावरणीय के समान जानना चाहिए। विवेचन – इससे पूर्व सभी कर्म-प्रकृतियों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति, अबाधाकाल एवं निषेककाल का प्रतिपादन किया गया था। इस प्रकरण में एकेन्द्रिय जीव बन्धकों को लेकर आठों कर्मों की स्थिति की प्ररूपणा की गई.. है। अर्थात् एकेन्द्रिय जीवों के ज्ञानावरणीयादि कर्म का जो बन्ध होता है, उसकी स्थिति कितने काल तक की होती है ?" निम्नोक्त रेखाचित्र से एकेन्द्रिय जीवों के ज्ञानावरणीयादि कर्मों की जघन्य, उत्कृष्ट स्थिति का आसानी से ज्ञान हो जाएगा -
SR No.003458
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size25 MB
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